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मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! आत्मनिन्दा करने से जीव किस गुण को प्राप्त करता है?
उत्तर - आत्म-निन्दा से पश्चात्ताप की उत्पत्ति होती है, पश्चात्ताप से वैराग्य - युक्त होता हुआ यह जीव करणगुणश्रेणी को प्राप्त करता है, फिर करणगुण-श्रेणी को प्राप्त हुआ अनगार दर्शन - मोहनीय कर्म का नाश कर देता है।
टीका- आलोचना के अनन्तर आत्म-निन्दा - आत्मगत दोषों के विमर्शन करने का इसलिए विधान किया गया है कि आलोचना में उसकी अधिक आवश्यकता है। आत्म-निन्दा के बिना आलोचना में पुष्टि नहीं आती, अतः प्रस्तुत मूलगाथा में आत्मनिन्दा का फल प्रदर्शन करते हैं।
शिष्य पूछता है कि भगवन् ! आत्मनिन्दा से इस जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ?
शिष्य के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे भद्र ! आत्मनिन्दा अर्थात् आत्मगत दोषों के विमर्श से पश्चात्ताप की उत्पत्ति होती है - "हाय ! मैंने यह अयोग्य कार्य क्यों किया !" इत्यादि प्रकार का जब हृदय में पश्चात्ताप उत्पन्न होता है तब उस पश्चात्ताप से जीव को तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और उस वैराग्य के प्रभाव से वह करणगुणश्रेणी - क्षपक श्रेणी को प्राप्त कर लेता है, और क्षपक श्रेणी को प्राप्त करने वाला साधु शीघ्र ही मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है, जिसका अति निकट फल मोक्ष है। अपूर्वकरण से गुण का हेतु जो श्रेणी है उसी का नाम करणगुणश्रेणी है। अथवा करणगुण से - अपूर्वकरणादि के माहात्म्य से प्राप्त होने वाली जो श्रेणी है उसी का नाम करणगुण- श्रेणी है, इसी का दूसरा नाम 'क्षपक-श्रेणी" है।
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तात्पर्य यह है कि तथाकरण अर्थात् पिंडविशुद्धि आदि से उपलक्षित ज्ञानादि गुणों की श्रेणी को उत्तरोत्तर परम्परारूप में ग्रहण करता है; अर्थात् पिंड - विशुद्धि से ज्ञानादि गुणों को अंगीकार करता है।
इसके अतिरिक्त संप्रदाय के अनुसार, जिन गुणों को आत्मा ने प्रथम कभी प्राप्त न किया हो उन गुणों की श्रेणी का नाम अपूर्व- करणगुण- श्रेणी है। अपूर्व- करणगुण-श्रेणी को प्राप्त करने वाला भिक्षु दर्शन - मोहनीय आदि कर्मों की प्रकृतियों को क्षय करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यह आत्मनिन्दा की फलश्रुति है।
अब गर्दा के विषय में कहते हैं.
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गरहणयाएणं भंते ! जीवे किं जणय ? गरहणयाएणं अपुरक्कारं जणयइ। अपुरस्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ, पसत्थे य पडिवज्जइ । पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइपज्जवे खवेइ ॥ ७ ॥
गर्हया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? गर्हयाऽपुरस्कारं जनयति । अपुरस्कारगतो जीवोऽप्रशस्तेभ्यो योगेभ्यो निवर्तते, प्रशस्तयोगांश्च प्रतिपद्यते । प्रशस्तयोगप्रतिपन्नश्चानगारोऽनन्तघातिनः पर्यायान् क्षयति ॥ ७ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ११०] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं