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________________ शिष्य ने पूछा कि भगवन् ! आलोचना का क्या फल है? गुरु ने उत्तर दिया कि हे वत्स ! आलोचना से माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप शल्यों की निवृत्ति होती है। माया का अर्थ है-कपट और दम्भ। किसी निमित्त-विशेष को लेकर तप करना अर्थात् "मेरे इस तप के प्रभाव से ऐसा हो जाए" इस प्रकार की कामना करना निदान है। मिथ्यात्व अर्थात् असदृष्टि को मिथ्या-दर्शन कहते हैं। इन तीनों को जैन-दर्शन में शल्य माना गया है। जिस प्रकार शरीर में रहा हुआ तोमरादि का शल्य शरीर को अत्यन्त पीड़ा देने वाला होता है, उसी प्रकार आत्मा में रहे हुए ये मायादि शल्य भी साधक के लक्ष्य अर्थात् मोक्ष-मार्ग में विघ्न रूप हैं और अनन्त संसार के बढ़ाने वाले हैं, परन्तु आलोचना के द्वारा यह जीव इन मायादि शल्यों को दूर कर देता है। तात्पर्य यह है कि जैसे शरीरगत शल्य की देखभाल करके उसको शरीर से निकाल कर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार आलोचना से यह जीव मायादि शल्यों से रहित हो जाता है। एवं निःशल्य होने से वह ऋजुभाव को प्राप्त करता है और मायारहित हो जाता है। तब मायारहित होने से वह स्त्री अथवा नपुंसक वेद को नहीं बांधता और यदि कदाचित् उनका पूर्वभव में बंध भी हो चुका हो तो उसका वह नाश कर देता है। इस कथन में इतना और समझ लेना चाहिए कि अगर उस जीव के इस जन्म में सारे कर्म नष्ट हो जाएं, तब तो वह मोक्ष को प्राप्त करता है और यदि कुछ बाकी रह गए हों तो वह पुरुष-वेद को ही बांधता है, अर्थात् मृत्यु होने के अनन्तर वह पुरुष ही बनता है, स्त्री अथवा नपुंसक नहीं। इस सारे कथन का सारांश इतना ही है कि आत्म-शुद्धि का विशिष्टतम साधन आलोचना है। अब निन्दा के विषय में कहते हैं - निंदणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? निंदणयाएणं पच्छाणुतावं जणयइ। पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ। करणगुणसेढीपडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ॥ ६ ॥ निन्दनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति? निन्दनया पश्चात्तापं जनयति। पश्चादनुतापेन विरज्यमानः करणगुणश्रेणिं प्रतिपद्यते। करणगुणश्रेणिप्रतिपन्नश्चानगारो मोहनीयं कर्मोद्घातयति॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भदंत, निंदणयाएणं-आत्मनिन्दा करने से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, निंदणयाएणं-आत्म-निन्दा से, पच्छाणुतावं जणयइ-पश्चात्ताप को उत्पन्न करता है, पच्छाणुतावेणं-पश्चात्ताप से, विरज्जमाणे-वैराग्य युक्त होता हुआ, करणगुणसेढिंकरणगुण-श्रेणी को, पडिवज्जइ-प्राप्त कर लेता है, य-फिर, करणगुणसेढिं-करणगुणश्रेणी को, पडिवन्ने-प्राप्त हुआ, अणगारे-अनगार, मोहणिज्ज-मोहनीय, कम्म-कर्म को, उग्घाएइ-क्षय करता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१०९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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