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________________ प्रस्तुत मूलपाठ में जो वाक्य आया है उसकी संस्कृत छाया है 'अनत्याशातनाशीलः' अर्थात् आशातना करने का जिसका शील अर्थात् स्वभाव न हो उसको "अनत्याशातनाशील" कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो जीव आशातना का सर्वथा त्याग करने वाला हो वह नरक, पशु, मनुष्य और देव-सम्बन्धी दुर्गतियों को प्राप्त नहीं होता । नारकी और तिर्यक् की दुर्गति तो प्रसिद्ध ही है, मनुष्य की दुर्गति अधमाधम जाति में उत्पन्न होना और देव-सम्बन्धी दुर्गति किल्विषिकत्वादि जाति है तथा सुगति के विषय में मनुष्य की सुगति ऐश्वर्ययुक्त विशिष्टकुल में उत्पन्न होना और देव - सम्बन्धी सुगति अहमिन्द्रादि पदवी को प्राप्त करना है। अब आलोचना के विषय में कहते हैं। - आलोयणाएणं भंते ! जीवे किं जणय ? आलोयणाएणं माया- नियाणमिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अनंतसंसारबंधणाणं उद्धरणं करेइ । उज्जुभावं च जणयइ। उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंध । पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ ॥ ५ ॥ आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायानिदानमिथ्या- दर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानामनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति । ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवोऽमायी स्त्रीवेदं नपुंसकवेदं च न बध्नाति । पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, आलोयणाएणं - आलोचना से, जीवे जीव, किं जणयइ - किस फल की प्राप्ति करता है, आलोयणाएणं- आलोचना से, माया - छल-कपट, नियाण-निदान, मिच्छादंसण- मिथ्यादर्शन, सल्लाणं- शल्यों की, मोक्खमग्ग- मोक्षमार्ग में, विग्घाणं विघ्न करने वाले तथा, अणंतसंसारबंधणाणं - अनन्त संसार को बढ़ाने वाले- उनका, उद्धरणं- उद्धरण, करे - है, च- पुन:, उज्जुभावं - ऋजु भाव को, जणयइ - उत्पन्न करता है, उज्जुभावपडिवन्ने - ऋजुभाव से युक्त, जीवे - जीव, अमाई - माया से रहित, इत्थीवेय नपुंसगवेयं च स्त्री-वेद और नपुंसक वेद को, न बंधइ-नहीं बांधता है, च-वा, पुव्वबद्धं - पूर्व बांधे हुए को, निज्जरेइ - निर्जरा कर देता है । - करता मूलार्थ - प्रश्न - हे भदन्त ! आलोचना से जीव किस फल को प्राप्त करता है? उत्तर - आलोचना से यह जीव मोक्ष मार्ग के विघातक और अनन्त संसार को देने वाले माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप शल्यों को दूर कर देता है और ऋजुभाव - सरलता को उत्पन्न करता है तथा ऋजुभाव को प्राप्त करके माया से रहित हुआ यह जीव, स्त्रीवेद या नपुंसकवेद को नहीं बांधता, अथ च पूर्व में बंधे हुए की निर्जरा कर देता है । टीका - प्रस्तुत गाथा में आलोचना के फल का दिग्दर्शन कराया गया है। आत्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित करके उनकी आज्ञानुसार प्रायश्चित करने को आलोचना कहा जाता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १०८ ] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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