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________________ उत्तर-सामायिक से यह जीव सावद्ययोगों से निवृत्ति को प्राप्त करता है। टीका-आलोचना आदि के अनन्तर षडावश्यक का फल बताते हुए प्रथम सामायिक का फल बताते हैं। समभाव में स्थिर होने का नाम सामायिक है। उसके अनुष्ठान का फल पूछने पर गुरु उत्तर देते हैं कि सामायिक के अनुष्ठान से सावध योग अर्थात् पापमय मन, वचन और काया के व्यापारों से इस जीव की निवृत्ति हो जाती है। कारण यह है कि सामायिक में सावध योगों का प्रत्याख्यान किया जाता है और शुभ योगों के द्वारा कर्मों की निर्जरा में प्रवृत्ति करने का यत्न किया जाता है। . सामायिक करते हुए सामायिक के निरूपकों की स्तुति नितान्त आवश्यक है, अतः अब उसके विषय में कहते हैं - चउव्वीसत्थएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? ॥ चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ ॥९॥ चतुर्विंशतिस्तवेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? ॥ चतुर्विंशतिस्तवेन दर्शनविशुद्धिं जनयति ॥ ९ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे पूज्य, चउव्वीसत्थएणं-चतुर्विंशति-स्तव से, जीवे-जीव, किंजणयइ-क्या फल उत्पन्न करता है? चउव्वीसत्थएणं-चतुर्विंशतिस्तव से, दंसणविसोहि-दर्शन-विशुद्धि को, जणयइ-उत्पन्न करता है। मूलार्थ-(प्रश्न )-हे पूज्य ! चतुर्विंशति-स्तव से यह जीव किस फल की प्राप्ति करता है? उत्तर-चतुर्विंशतिस्तव से यह जीव दर्शन-सम्यक्त्व की विशुद्धि कर लेता है। टीका-अब द्वितीय आवश्यक के विषय में पूछते हैं। शिष्य कहता है कि भगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव का पाठ करने से किस फल की प्राप्ति होती है? इसका गुरु उत्तर देते हैं कि चतुर्विंशतिस्तव के पाठ से यह जीव, दर्शन की विशुद्धि करता है, अर्थात् दर्शन में बाधा उत्पन्न करने वाले जो कर्म हैं, वे सब दूर हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि इस अवसर्पिणी में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं उनकी श्रद्धापूर्वक स्तुति करने से इस जीव का सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। . तीर्थंकरों की स्तुति भी आसन्नोपकारी गुरुजनों की वन्दना करने पर ही सफल हो सकती है, अतः अब गुरु-वन्दना के विषय में कहते हैं - वंदणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? ॥ वंदणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ। उच्चागोयं कम्मं निबंधइ। सोहग्गं च णं अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ। दाहिणभावं च णं जणयइ ॥ १० ॥ वन्दनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । वन्दनया नीचैर्गोत्रं कर्म क्षपयति। उच्चैर्गोत्रं कर्म बजाति। सौभाग्यं चाप्रतिहतमाज्ञाफलमुत्पादयति। दाक्षिण्यभावं च जनयति ॥ १० ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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