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________________ मानसिक दुःखों का व्यवच्छेद कर देता है, तदनन्तर समस्त बाधा - रहित सुख का सम्पादन करता है। टीका - शिष्य ने पूछा कि " भगवन् ! धर्म - श्रद्धा से यह जीव किस फल को प्राप्त करता है, अर्थात् धर्म में श्रद्धा करने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? गुरु ने उत्तर दिया कि हे शिष्य ! जिस समय इस जीव को धर्म करने में श्रद्धा उत्पन्न होती है, उस समय सातावेदनीय-कर्म - जन्य सुख के उपभोग में उसका जो अनुराग था उससे वह विरक्त हो जाता है, उससे वह गृहस्थ-धर्म का त्याग करके अनगार अर्थात् साधु-धर्म को धारण कर लेता है तथा अनगार-धर्म की आराधना से वह छेदन और भेदन रूप शारीरिक और इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट - संयोग रूप मानसिक दुःखों का विनाश कर देता है। तात्पर्य यह है कि जिन अशुभ कर्मों से उक्त प्रकार के दुःख उत्पन्न होते हैं उनका वह नाश कर देता है। इस प्रकार नवीन कर्मों के बन्ध से निवृत्त होकर और पूर्व कर्मों का क्षय करके वह सर्व प्रकार की बाधाओं से रहित जो मोक्ष-सुख है उसको प्राप्त कर लेता है। कारण यह है कि निज-गुण का सुख एक अनुपम सुख होता है और सातावेदनीय कर्म के क्षयोपशम से जो सुख उत्पन्न होता है वह अनित्य - सादि, सान्त होता है, विपरीत इसके जो आध्यात्मिक सुख है वह अजन्य होने से नित्य अथवा अनन्त पद वाला है। यद्यपि ऊपर संवेगादि के फल- प्रदर्शन में धर्म - श्रद्धा का भी उल्लेख किया गया है, परन्तु यहां पर धर्म-श्रद्धा का जो स्वतन्त्र निर्देश किया है वह उसकी विशिष्टता का द्योतक है, अतः पुनरुक्ति दोष की सम्भावना नहीं है । धर्मश्रद्धा के अनन्तर गुरुशुश्रूषा की प्राप्ति होती है, अतः अब गुरुशुश्रूषा के विषय में कहते हैं - गुरु-साहम्मियसुस्सूसणाएणं भंते ! जीवे किं जणय ? गुरु- साहम्मियसुस्सूसणाए णं विणयपडिवत्तिं जणय । विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइय-तिरिक्खजोणिय - मणुस्स - देवदुग्गईओ निरुभइ । वण्णसंजलणभत्ति - त- बहुमाणयाए मणुस्स - देवसुगईओ निबंध | सिद्धिसोग्गइं च विसोहेइ । पसत्थाइं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाई साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणिइत्ता भवइ ॥ ४ ॥ गुरु-साधर्मिकशुश्रूषणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? गुरु - साधर्मिकशुश्रूषया विनयप्रतिपत्तिं जनयति । विनयप्रतिपन्नश्च जीवः अनत्याशातनाशीलो नैरयिक- तिर्यग्योनिक- मनुष्यदेवदुर्गतीर्निरुणद्धि । वर्णसंज्वलनभक्तिबहुमानतया मनुष्य - देवसुगतीर्निबध्नाति । सिद्धिं सुगतिं च विशोधयति । प्रशस्तानि च विनयमूलानि सर्वकार्याणि साधयति । अन्येषाञ्च बहूनां जीवानां विनेता भवति ॥ ४॥ I उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१०६ ] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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