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________________ संसार-मार्ग का विच्छेद कर देता है, फिर सिद्धि-मार्ग का ग्रहण करने वाला हो जाता है। टीका-शिष्य पूछता है कि भगवन् ! निर्वेद का क्या फल है? गुरु उत्तर देते हैं कि निर्वेद से देव-मनुष्यादि से सम्बन्ध रखने वाले सर्व प्रकार के विषय-भोगों से उपरामता हो जाती है, उपरामता से आरम्भादि का परित्याग होता है, आरम्भादि के परित्याग से संसार-मार्ग अर्थात् प्रवृत्तिमार्ग का विच्छेद हो जाता है और मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि निर्वेद से यह जीवात्मा समस्त प्रकार के काम-भोगों से विरक्त हो जाता है, विषयों से विरक्त होने पर सर्व प्रकार के आरम्भ का त्याग कर देता है और आरम्भ के परित्याग से भव-परम्परा का विच्छेद करता हआ मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है। ____ कई एक प्राचीन प्रतियों में 'आरम्भपरिग्गहं परिच्चायं' ऐसा पाठ भी देखने में आता है। इसमें आरम्भ के साथ परिग्रह का भी उल्लेख है, तब इसका अर्थ होता है आरम्भ और परिग्रह का त्याग। इस प्रकार संवेग और निर्वेद के फल का वर्णन करने के अनन्तर अब धर्म-श्रद्धा के विषय में कहते हैं - धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ। अगारधम्मं च णं चयइ। अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ। अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ॥ ३ ॥ . धर्मश्रद्धया भदन्त ! जीवः किं जनयति? धर्मश्रद्धया सातासौख्येषु रज्यमानो विरज्यते। आगारधर्मं च त्यजति। अनगारो जीवः शारीरमानसानां दुःखानां छेदनभेदन-संयोगादीनां व्युच्छेदं करोति। अव्याबाधं च सुखं निवर्तयति॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, धम्मसद्धाएणं-धर्मश्रद्धा से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण का उत्पादन करता है? धम्मसद्धाएणं-धर्मश्रद्धा से, सायासोक्खेसु-साता-सुख में, रज्जमाणे-राग करता हुआ, विरज्जइ-वैराग्य को प्राप्त होता है, च-फिर, आगार धम्म-गृहधर्म को, चयइ-छोड़ देता है, णं-वाक्यालंकार में, अणगारिए णं-अनगार-साधु होने पर, जीवे-जीव, सारीर-शारीरिक और, माणसाणं-मानसिक, दुक्खाणं-दु:खों का, छयण-छेदन, भेयण-भेदन तथा, संजोगाईणं-अनिष्टसंयोगादि मानसिक दु:खों का, वोच्छेयं-विच्छेद, करेइ-करता है, फिर, अव्वाबाहं-समस्त प्रकार की पीड़ा से रहित, सुह-सुख को, निव्वत्तेइ-उत्पन्न करता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मश्रद्धा से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उत्तर-हे शिष्य ! धर्मश्रद्धा से सातावेदनीय कर्म-जन्य सुख में अनुराग करता हुआ यह जीव वैराग्य को प्राप्त कर लेता है, फिर गृहस्थ-धर्म को छोड़कर अनगार-धर्म को ग्रहण करता हुआ शारीरिक और मानसिक दुःखों का छेदन, भेदन तथा अनिष्ट-संयोग-जन्य उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१०५] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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