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________________ शिष्य ने प्रश्न किया कि भगवन् ! संवेग का क्या फल है ? अर्थात् मुमुक्षु जीव को उससे किस गुण की-किस योग्यता की प्राप्ति होती है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री आचार्य कहते हैं कि मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले जीव को प्रधान श्रुतधर्मादि के करने की श्रद्धा उत्पन्न होती है। फिर श्रद्धा से संवेग अर्थात् वैराग्य की शीघ्र उत्पत्ति हो जाती है। कारण यह है कि धर्मश्रद्धा से विषयों का राग छूट जाता है और उसके प्रभाव से अनन्तानुबन्धी कषायों-क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय होता है। इनके क्षय होने से फिर नवीन अशुभ कर्मों का बन्ध नहीं होता। इससे मिथ्यात्व की निवृत्ति होकर साधक दर्शन क्षायिक-सम्यक्त्व का आराधक बन जाता है, अर्थात् सम्यक्त्वगत दोषों को दूर करके निरतिचार-दर्शन का आराधन करने लगता है, अतः दर्शन की विशुद्धि से अत्यन्त शुद्ध होकर कई एक जीव तो इसी जन्म में मोक्षगति को प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि मरुदेवी माता को उसी भव में मोक्ष की प्राप्ति हुई। यदि कुछ कर्म शेष रह जाएं तो अधिक से अधिक वह जीव तीसरे जन्म में तो अवश्यमेव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। कारण यह है कि तीसरे जन्म तक शेष रहे हुए कर्म भी विनष्ट हो जाते हैं। अब निर्वेद के विषय में कहते हैं : निव्वेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? निव्वेएणं दिव्व-माणुस-तेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ। सव्वविसएसु विरज्जइ। सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गं पडिवन्ने य हवइ ॥२॥ निर्वेदेन भदन्त ! जीवः किं जनयति? निर्वेदेन दिव्य-मानुष्य-तैरश्चेषु कामभोगेषु निर्वेद शीघ्रमागच्छति। ततः सर्वविषयेभ्यो विरज्यति। सर्वविषयेभ्यो विरज्यमान आरम्भ-परित्यागं कुर्वाण: संसारमार्ग व्युच्छिनत्ति, सिद्धिमार्ग प्रतिपन्नश्च भवति ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, निव्वेएणं-निर्वेद से, जीवे-जीव, किंजणयइ-क्या गुण उत्पन्न करता है, निव्वेएणं-निर्वेद से, दिव्वमाणुसतेरिच्छिएसु-देव, मनुष्य और तिर्यक् सम्बन्धी, कामभोगेसु-काम भोगों से, हव्वं-शीघ्र ही, निव्वेयं-निर्वेद को, आगच्छइ-प्राप्त करता है, तथा, सव्व-सर्व, विसएसु-विषयों में, विरज्जइ-वैराग्य को प्राप्त करता है, सव्वविसएसु-सर्व विषयों में, विरज्जमाणे-वैराग्य को प्राप्त होता हुआ, आरम्भ-आरम्भ-हिंसादि का, परिच्चायं-परित्याग, करेइ-करता है, आरंभपरिच्चायं करेमाणे-आरम्भादि का सर्व प्रकार से त्याग करता हुआ, संसारमग्गं-संसार-मार्ग को, वोच्छिदइ-छेदन करता है, य-फिर, सिद्धिमग्गं-सिद्धिमार्ग को, पडिवन्ने-ग्रहण करने वाला, हवइ-होता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! निर्वेद से यह जीव, क्या गुण उपार्जन करता है? उत्तर-निर्वेद से यह जीव देव, मनुष्य और तिर्यक्-सम्बन्धी काम-भोगों में शीघ्र ही निर्वेदता को प्राप्त करता है, फिर सर्व विषयों से विरक्त हो जाता है, सर्व विषयों से विरक्त होता हुआ सर्व प्रकार से आरम्भ का परित्याग कर देता है, आरम्भ का त्याग करता हुआ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १०४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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