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टीका-प्रस्तुत गाथा में ज्ञानादि चारों साधनों के पृथक्-पृथक् कार्य बताए गए हैं। ज्ञान का कार्य वस्तु-तत्त्व के स्वरूप को जानना है और दर्शन का कार्य उस पर पूर्ण विश्वास कराना है, तथा चारित्र का कार्य निराश्रव अर्थात् आश्रवों से रहित करना आश्रव-द्वारों-कर्मागमन के मार्गों को रोक देना है और तप का काम आत्म-संपृक्त कर्मों को जलाकर उसको शुद्ध बना देना है।
सारांश यह है कि ज्ञान द्वारा जान कर, दर्शन द्वारा श्रद्धान करके और चारित्र के द्वारा निराश्रव होकर तप के द्वारा यह आत्मा शुद्ध होती हुई मोक्ष-मंदिर की पथिक बन जाती है। ये चारों ही बन्ध की निवृत्ति के उपाय हैं। इनके द्वारा कर्म-बन्धनों को काट कर यह आत्मा सर्व प्रकार से स्वतन्त्र हो जाती है। जैसे कोई ऋणी पुरुष ऋण से मुक्त होने के लिए प्रथम ऋण का ज्ञान करता है और फिर उसका निश्चय करता है तथा आगे ऋण न बढ़े उसके लिए प्रयत्न करता है और जो ऋण सिर पर विद्यमान है उसको. थोड़ा-थोड़ा करके देता जाता है और अन्त में ऋण-मुक्त होकर परम सुखी बन जाता है, उसी प्रकार कर्म-बन्ध से मुक्त होने के लिए इस आत्मा को भी उक्त चारों साधनों का अवलंबन लेना पड़ता है। अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि -
खवित्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो ॥ ३६ ॥
त्ति बेमि । इति मोक्खमग्गगई समत्ता ॥ २८ ॥ क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि, संयमेन तपसा च । प्रहीणसर्वदुःखार्थाः, प्रक्रामन्ति महर्षयः ॥ ३६ ॥
इति ब्रवीमि ।
इति मोक्षमार्गगतिः समाप्ता ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः-खवित्ता-क्षय करके, पुव्वकम्माई-पूर्व कर्मों को, संजमेण-संयम से, य-और, तवेण-तप से, सव्वदुक्खपहीणट्ठा-जिससे सब दुःख नष्ट हो जाते हैं ऐसे सिद्ध पद की प्राप्ति के लिए, महेसिणो-महर्षि लोग, पक्कमन्ति-पराक्रम करते हैं, त्ति-परिसमाप्ति में, बेमि-मैं कहता हूं। ___ मूलार्थ-इस प्रकार तप और संयम के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके सर्व प्रकार के दुःखों से रहित जो सिद्धपद है उसके लिए महर्षिजन पराक्रम करते हैं।
. टीका-प्रस्तुत अध्ययन की समाप्ति करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि महर्षि जन तप और संयम के द्वारा पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों को खपा कर सभी दु:खों से रहित मोक्ष-गति के लिए पराक्रम करते हैं। तात्पर्य यह है कि उनके तप और संयम के अनुष्ठान का सारा प्रयोजन मोक्ष-गति को प्राप्त करना होता है।
. उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ९७] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं