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________________ चारित्र शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है, चय अर्थात् समूह कर्म - राशि को जो रिक्त - खाली करे वह चारित्र है। तात्पर्य यह है कि आत्मा को जो कर्म-मल से सर्वथा रहित कर देने की शक्ति रखता हो उसे चारित्र कहते हैं। इस प्रकार चारित्र के ये पांच भेद वर्णन किए गए हैं। अब तप के विषय में कहते हैं। बाहिरब्धंतरो तहा । तवो य दुविहो वुत्तो, बाहिरो छव्विहो वत्तो, एवमब्भंत तवो ॥ ३४ ॥ तपश्च द्विविधमुक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । बाह्यं षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः - तवो- -तप, दुविहो-दो प्रकार का, वुत्तो - कहा गया है, बाहिर–बाह्य, तहा-तथा, अब्भंतरो-आभ्यंतर, य-पुनः, बाहिरो - बाह्य, छव्विहो - षड्विध-छः प्रकार का, वुत्तो- - कहा है, एवं - इसी प्रकार, अब्भंतरो - आभ्यंतर, तवो-तप भी - षट् प्रकार का है। मूलार्थ - तप दो प्रकार का है, बाह्य और आभ्यन्तर, उसमें बाह्य के छः भेद हैं और आभ्यन्तर तप भी छः प्रकार का है। टीका - मोक्ष का चतुर्थ साधन तप है। वह दो प्रकार का है। एक बाह्य तप दूसरा आभ्यंतर तप, इन दोनों के छः-छः भेद हैं, अर्थात् छः प्रकार का बाह्य और छः प्रकार का आभ्यन्तर तप है। इसका पूर्ण विवरण इसी सूत्र के तीसवें तपोऽध्ययन में किया गया है। इस प्रकार तप के बारह भेद होते हैं। तप एक प्रकार की विचित्र अग्नि है जो कि आत्मा के साथ लगे हुए कर्म मल को जलाकर आत्मा को सर्व प्रकार से विशुद्ध कर देती है। इसीलिए शास्त्रकारों ने इसका पृथक् निर्देश किया है, अन्यथा चारित्र के अन्तर्गत इसका भी समावेश किया जा सकता था । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इन चारों का वर्णन करने के अनन्तर अब ज्ञानादि प्रत्येक का प्रयोजन बताते हैं, यथा नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ ३५ ॥ - ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धत्ते । चारित्रेण निगृह्णाति तपसा परिशुध्यति ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः - नाणेण- ज्ञान से, भावे- भावों को, जाणई जानता है, य-फिर, दंसणेण - दर्शन से, सहे - श्रद्धा करता है, चरित्तेण चारित्र से, निगिण्हाइ - आस्रवों का निरोध करता है, तवेण-त से, परिसुज्झई - यह जीव शुद्ध होता है। - तप मूलार्थ - यह जीव ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानता है, दर्शन से उन पर श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्माश्रवों को रोकता है और तप से शुद्धि को प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ९६] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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