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यह चारित्र तीर्थङ्कर, गणधर और स्थविर आदि के समीप ग्रहण किया जाता है, इसके द्वारा बहुत से कर्मों का क्षय होकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों में अधिक विकास और विशुद्धि होती है, इसलिए इसको परिहार-विशुद्धि-चारित्र कहा है।
४. सूक्ष्म-संपराय-चतुर्थ चारित्र सूक्ष्म-संपराय है। जहां पर सूक्ष्म-केवल लोभसंज्ञक कषाय विद्यमान हो, वह सूक्ष्म-संपराय-चारित्र है। यह चारित्र उपशम-श्रेणी व क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हुए मुनियों को होता है। कारण यह है कि जिसके द्वारा संसार में पर्यटन किया जाता है, उसी का नाम यहां पर लोभ है और वह सूक्ष्मसंज्ञक लोभ जिस के उदय में रह गया है उसे ही सूक्ष्म-संपराय-चारित्र कहा गया है।
ये सभी चारित्र परिणामों की तारतम्यता को लेकर कहे गए हैं। इनके द्वारा आत्म-प्रदेशों में लगी हुई कर्म-वर्गणाओं का क्षय हो जाता है। . अब यथाख्यात-चारित्र के विषय में कहते हैं -
अकसायमहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एयं चयरित्तकर, चारित्तं होइ आहियं ॥ ३३ ॥
अकषायं यथाख्यातं, छद्मस्थस्य जिनस्य वा ।
एतच्चयरिक्तकरं, चारित्रं भवत्याख्यातम् ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः-अकसायं-कषाय-रहित, अहक्खाय-यथा-ख्यात है, छउमत्थस्स-छद्मस्थ को, वा-अथवा, जिणस्स-जिन को होता है, एयं-यह-पांचों चारित्र, चयरित्तकरं-कर्मों की राशि को रिक्त करने वाले हैं, अतः, चारित्तं-चारित्र, होइ-होता है, आहियं-तीर्थङ्करों ने कहा है।
मूलार्थ-कषाय से रहित जो यथाख्यात चारित्र है वह छद्मस्थ को और जिन (केवली) को होता है। कर्म-राशि को क्षय करने के कारण इसे तीर्थङ्करों ने चारित्र कहा है। - टीका-यथाख्यात-चरित्र वाला जीव जैसी प्ररूपणा करता है उसी के अनुसार वह क्रियानुष्ठान भी करता है। यह चारित्र ग्यारहवें और बारहवें गुण-स्थानवर्ती छद्मस्थ को होता है और केवली भगवान् को होता है जो कि तेरहवें और चौदहवें गुण-स्थानवर्ती हैं।
यहां पर यदि कोई शंका करे कि यथाख्यात-चारित्र को अकषाय-कषाय-रहित कहा गया है और ग्यारहवें गुण-स्थान में उपशमकषाय है, अर्थात् कषायों का उपशम है सर्वथा अभाव नहीं है तब ग्यारहवें गुण-स्थानवर्ती छद्मस्थ में यथाख्यात-चारित्र कैसे हो सकता है ?
___ इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि ग्यारहवें गुण-स्थान में कषायों का अभाव नहीं, किन्तु उपशम है, तथापि कषायों का जो कार्य है उसके न होने से उपशान्त-मोहनामा ग्यारहवें गुण-स्थान को भी व्यवहारनय के अनुसार अकषाय ही माना गया है, क्योंकि वहां पर कषाय-जन्य कार्य का अभाव होने से वह भी अकषाय ही है।
• उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [९५] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं