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________________ किया है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं - नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ ३० ॥ नादर्शनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन बिना न भवन्ति चारित्रगुणाः । अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम् ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः-अदंसणिस्स-दर्शनरहित को, न-नहीं होता, नाणं-ज्ञान, नाणेण विणा-ज्ञान के बिना, न हुँति-नहीं होते, चरणगुणा-चारित्र के गुण, अगुणिस्स-चारित्र के गुणों से रहित का, नथि मोक्खो-मोक्ष नहीं है, अमोक्खस्स-अमुक्त को, नत्थि निव्वाणं-निर्वाण प्राप्त नहीं होता। मूलार्थ-दर्शन-सम्यक्त्व से रहित साधक को ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र के गुण प्रकट नहीं होते, चारित्र के गुणों के बिना कर्मों से मुक्ति नहीं मिलती और कर्मों से मुक्त हुए बिना निर्वाण अर्थात् सिद्धपद की प्राप्ति नहीं हो सकती। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में सम्यग्दर्शन की विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने मोक्ष के साधनों में सबसे अग्रणी स्थान सम्यक्त्व को दिया है। सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान का होना अशक्य है और ज्ञान के बिना सम्यक्-चारित्र का होना अर्थात् चारित्र-सम्बन्धी सद्गुणों-व्रत और पिंडविशुद्धि आदि का प्राप्त होना भी दुर्लभ है। यदि चारित्र-सम्बन्धी सद्गुणों की प्राप्ति न हुई तो फिर कर्मों से मुक्त होना अर्थात् कर्मों के बन्धनों से छुटकारा पाना भी नितान्त कठिन है। जब कर्मों से छुटकारा न मिला तो फिर समस्त कर्मों का क्षयरूप जो परम-निर्वाणपद है उसकी प्राप्ति की आशा करना भी व्यर्थ ही होगा। इसलिए निर्वाणप्राप्ति की इच्छा रखने वाले जीवों को सब से प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। कारण यह है कि सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होगी और सम्यग्ज्ञान से चारित्र-सम्बन्धी सद्गुणों की उपलब्धि होगी, उन सद्गुणों के धारण करने से कर्मों का क्षय होगा और कर्मों के क्षय से सर्वोत्कृष्ट निर्वाणपद की प्राप्ति होगी। इस प्रकार सम्यग्दर्शनं को प्राप्त करता हुआ जीव, अनुक्रम से उत्तरोत्तर भूमिकाओं को प्राप्त करके अन्त में परमकल्याणस्वरूप सिद्धगति को प्राप्त कर सकता है। ___ इससे सिद्ध हुआ कि निर्वाणरूप भव्य प्रासाद की आधारशिला सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन ही है। इस प्रकार सम्यक्त्व की विशिष्टता का वर्णन करने के अनन्तर अब उसके आठ अंगों का वर्णन करते हैं - निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवबूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥ ३१ ॥ १. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' तत्त्वा. अ. १ सू. १ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [९२] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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