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________________ निःशङ्कितं निःकांक्षितं, निर्विचिकित्स्यममूढदृष्टिश्च । उपबृंहास्थिरीकरणे, वात्सल्यप्रभावनेऽष्टौ ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः-निस्संकिय-शंकारहित, निक्कंखिय-आकांक्षारहित, निव्वितिगिच्छा-फल में सन्देहरहित, य-और, अमूढदिट्ठी-अमूढदृष्टि, उवबूह-गुणकीर्तन, थिरीकरणं-धर्म में स्थिर करना, वच्छल्ल-वात्सल्य, पभावणे-धर्मप्रभावना, अट्ठ-आठ। मूलार्थ-निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्स्य, अमूढदृष्टि, उपहा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये आठ गुण दर्शन के आचार हैं अर्थात् सम्यक्त्व के अंग हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में दर्शन के आठ आचारों अर्थात् अंगों का उल्लेख किया गया है, यथा - (१) निःशंकित-जिन-प्रवचन में किसी प्रकार की शंका न करना। (२) निःकांक्षित-असत्य मतों वा सांसारिक सुखों की इच्छा न करना। (३) निर्विचिकित्स्य-धर्म के फल में सन्देह रहित होना। (४) अमूढदृष्टि-बहुत से मत-मतान्तरों के विवादास्पद विचारों को देखकर दिङ्मूढ न बनना, किन्तु अपनी धार्मिक श्रद्धा को दृढ़ बनाए रखना। । ___(५) उपबृंहा-गुणी पुरुषों को देखकर उनकी प्रशंसा करना और अपने को वैसा गुणी बनाने का प्रयत्न करना। (६) स्थिरीकरण-धर्म से विचलित होते हुए जीवों को पुनः धर्म पर दृढ़ करना। (७) वात्सल्य-स्वधर्म का हित करना और स्वधर्मियों के प्रति प्रेम-भाव रखना, उनकी भोजनादि द्वारा सेवा-भक्ति करना। (८) प्रभावना-सत्यधर्म की प्रभावना-उन्नति और प्रचार करना। उपर्युक्त आठ गुण सम्यक्त्व के अंग कहे जाते हैं। इनमें प्रथम चार गुण तो अन्तरंग हैं और आगे के चार बहिरंग कहे जाते हैं। इन आठ गुणों के द्वारा दर्शन प्रदीप्त होता है और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। अब चारित्र के विषय में कहते हैं - सामाइयत्थ पढम, छेदोवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ सामायिकमत्र प्रथम, छेदोपस्थापनं भवेद्वितीयम् । परिहारविशुद्धिकं, सूक्ष्मं तथा संपरायं च ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-अत्थ-यहां पर, सामाइय-सामायिक, पढम-प्रथम चारित्र है, छेदोवट्ठावणं • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ९३] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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