________________
इसका अभिप्राय यह है कि परमार्थ के संस्तव से हृदय में एक विशेष प्रकार का उल्लास पैदा होता है और परमार्थदर्शी सत्य पुरुषों की सेवा से आत्मगुणों के विकास में क्रान्ति पैदा होती है एवं पतित पुरुषों के सहवास से धर्म-मार्ग से विमुख होने का भय रहता है; इसलिए जिस आत्मा में सम्यक्त्व का बीज अंकुरित होता है उसमें ये तीनों बातें स्वभावत: प्रतीत होती हैं, अर्थात् जहां पर इन उक्त गुणों की सत्ता व्यक्त हो, वहां पर सम्यक्त्व अवश्य होता है । जैसे- पर्वत - गत धूम - रेखा से वह्नि का अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार जिस व्यक्ति में इन तीनों गुणों की अभिव्यक्ति हो, वहां सम्यक्त्व की विद्यमानता का अनुमान कर लेना चाहिए। कारण यह है कि जिस व्यक्ति में ये उक्त गुण व्यक्त नहीं होते, वहां पर सम्यक्त्व भी नहीं होता ।
इस प्रकार सम्यक्त्व के परिचायक गुणों का वर्णन करने के अनन्तर अब उसके महत्त्व का वर्णन करते हैं
नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्त - चरित्ताई, जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ॥ २९ ॥ नास्ति चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, दर्शने तु भक्तव्यम् । सम्यक्त्व - चारित्रे, युगपत्पूर्वं च सम्यक्त्वम् ॥ २९ ॥
पदार्थान्वयः - नत्थि - नहीं है, चरितं चारित्र, सम्मत्तविहूणं- सम्यक्त्व से रहित, उ-पुनः, दंसणे - दर्शन में, भइयव्वं चारित्र की भजना है, सम्मत्त चरित्ताइं - सम्यक्त्व और चारित्र, जुगवं - युगपत् - एक समय में हों तो, पुव्वं प्रथम - पहले सम्मत्तं सम्यक्त्व होगा, व- परस्पर अपेक्षा में है।
"
-
-
मूलार्थ - सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी - अर्थात् चारित्र की भजना होती है अर्थात् जहां पर सम्यक्त्व होता है वहां पर चारित्र होता भी है और नहीं भी, यदि दोनों एक काल में हों तो उनमें सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में सम्यक्त्व की विशिष्टता बताई गई है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र हो ही नहीं सकता, अर्थात् पहले सम्यक्त्व होगा तदनन्तर चारित्र की प्राप्ति होगी। कारण यह है कि 'सम्यक्त्व ' यह चारित्र की पूर्ववर्ती स्थिति विशेष है । यथार्थ श्रद्धा के बिना आचरण का होना असम्भव है। अत: दर्शनपूर्वक ही चारित्र होता है । परन्तु दर्शन में चारित्र की भजना है, अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर चारित्र का होना कोई आवश्यक नहीं है, वह हो भी सकता है और नहीं भी होता है। यदि दर्शन और चारित्र की उत्पत्ति एक साथ हो तो उसमें प्रथम दर्शन - सम्यक्त्व ही होता है।
तात्पर्य यह है कि जहां पर सम्यक् चारित्र होगा वहां पर दर्शन - सम्यक्त्व तो अवश्य होगा ही, परन्तु जहां पर दर्शन है वहां पर चारित्र का होना अनिवार्य नहीं, इसलिए सम्यक्त्व को ही विशिष्टता प्राप्त है। अतएव शास्त्रकारों ने मोक्षनिधि के बहुमूल्य रत्नों में सबसे प्रथम दर्शन का ही उल्लेख
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं