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________________ खलु-निश्चयार्थक है, चरित्तधम्म-चारित्र धर्म का, जिणाभिहियं-जिनकथित का, सद्दहइ-श्रद्धान करता है, सो-वह, धम्मरुइ-धर्मरुचि, त्ति-इस प्रकार, नायव्वो-जानना चाहिए। मूलार्थ-जो जीव जिनेन्द्रप्ररूपित अस्तिकायधर्म-द्रव्यादिरूप श्रुतधर्म-शास्त्रप्रवचनरूप और समितिगुप्त्यादिरूप चारित्रधर्म पर यथातथ्यरूप श्रद्धान करता है, वह धर्म-रुचि-सम्यक्त्व वाला है। टीका-प्रस्तुत गाथा में धर्मरुचि का लक्षण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो तीर्थंकर भगवान् के द्वारा उपदिष्ट धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की यथार्थता पर विश्वास करता है और अंग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य सभी प्रकार के श्रुत-प्रवचन में पूर्ण श्रद्धा रखता है एवं जिसकी चारित्र-धर्म पर पूरी आस्था है, ऐसे जीव का जो सम्यक्त्व है उसको धर्मरुचि-सम्यक्त्व कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिन-प्ररूपित द्रव्यों का यथार्थ ज्ञान, श्रुत का बोध और चारित्र के अनुष्ठान की अभिलाषा का होना यह धर्मरुचि के विशिष्ट लक्षण हैं। ___ यद्यपि रुचियों के सारे भेद निसर्ग और उपदेशरुचि में समाविष्ट हो सकते हैं, परन्तु शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थ और उपाधिभेद से भेद-निरूपणार्थ इनका पृथक्-पृथक निर्देश किया गया है। जिन गुणों से सम्यक्त्व में श्रद्धा उत्पन्न होती है अब उनका निरूपण करते हैं, यथा - परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठ परमत्थसेवणं वावि । वावन्नकुदंसणवज्जणा, य सम्मत्तसद्दहणा ॥ २८ ॥ परमार्थसंस्तवो वा, सुदृष्टपरमार्थसेवनं वापि । व्यापन्नकुदर्शनवर्जनं च, सम्यक्त्वश्रद्धानम् ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः-परमत्थ-परमार्थ का, संथवो-संस्तव, वा-अथवा, सुदिट्ठ-भली प्रकार से देखा है, परमत्थ-परमार्थ जिसने-उसकी, सेवणं-सेवा करनी, वा-वैयावृत्य करना, अवि-अपि समुच्चय में, य-और, वावन्न-सन्मार्ग से पतित, कुदंसण-तथा कुदर्शनी व्यक्ति का, वज्जणा-त्याग करना, सम्मत्तसद्दहणा-सम्यक्त्व की श्रद्धा है। मूलार्थ-परमार्थ-तत्त्व का बार-बार गुण-गान करना, जिन महापुरुषों ने परमार्थ को भली-भांति देखा है उनकी सेवा-सुश्रूषा करना, जो सम्यक्त्व अर्थात् सन्मार्ग से पतित हो गए हैं तथा जो कुदर्शनी अर्थात् असत्य दर्शन में विश्वास रखते हैं उनकी संगति न. करना, यह सम्यक्त्व की श्रद्धा है, अर्थात् इन उक्त गुणों से सम्यक्त्व रूप श्रद्धा प्रकट होती है। टीका-प्रस्तुत गाथा में सम्यक्त्व के बोधक गुणों का वर्णन किया गया है। जिस पुरुष में सम्यक्त्व होता है अथवा यूं कहिए कि जो पुरुष सम्यगदर्शन से युक्त होता है उसमें निम्नलिखित तीन गुण अवश्य विद्यमान होते हैं; १. तत्त्व का संस्तव अर्थात् गुणकीर्तन, २. तत्त्ववेत्ता महापुरुषों की उपासना, ३. सन्मार्ग से भ्रष्ट और कुमार्ग में प्रवृत्ति रखने वालों के संसर्ग का परित्याग। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [९०] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अल्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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