________________
पञ्चदशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६४६
1
1
सूक्ताः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः । फलावाप्तिकरा लोके भङ्गभेदयुता विभोः ॥ अण्डकैस्तु विविक्तास्ते, निर्गमैश्चारुरूपकैः । चित्रपत्रैर्विचित्रैस्तु विविधाकाररूपकैः ॥” इत्यादि । अंगविद्या — जिसके द्वारा अंगस्फुरण का फलाफल कहा जाय । जैसे कि— सिर के स्फुरण से राज्य की प्राप्ति होती है, दक्षिण नेत्र के स्फुरण से प्रिय का मिलाप होता है, इत्यादि । स्वर की विद्या - पशुओं के शब्दों को सुनकर उनके शुभाशुभ फल का विचार करना । यथा - "गतिस्तारा स्वरो वामः पोदक्याः शुभदः स्मृतः । विपरीतः प्रवेशे तु स एवाभीष्टदायकः ॥ " तथा - ' - "दुर्गास्वरत्रयं स्यात् ज्ञातव्यं शाकुनेन नैपुण्यात् । चिलिचिलिशब्दः सफलः सुसु मध्यश्चलचलो विफलः || ” इत्यादि । सो इन उक्त प्रकार की विद्याओं से जो अपना जीवन व्यतीत करने वाला है, वह भिक्षु नहीं कहा जाता किन्तु भिक्षु वही कहलाता है, जो इन विद्याओं से जीवन व्यतीत नहीं करता । अब मंत्रादि द्वारा भिक्षाग्रहण करने का निषेध करते हैं—
मन्तं मूलं विविहं वेज्जचिन्तं, वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं आउरे सरणं तिगिच्छियं च,
1
तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥८॥
मंत्रं मूलं विविधं वैद्यचिन्तां वनविरेचन घूमनेत्र स्नानम् आतुरस्मरैण चिकित्सकं च,
तत् परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः ॥८॥ पदार्थान्वयः — मन्तं - मंत्र मूलं - मूल विविहं - नाना प्रकार की वे चिन्तंवैद्य की चिन्ता वमण-वमन विरेयण - विरेचन धूम-धूम नेत्त- नेत्रौषधि सिखाणंस्नान आउरे - आतुर अवस्थाएँ सरणं - माता पिता आदि की शरणा - स्मरण करना च - और तिगिच्छियं-अपने रोग का प्रतिकार करना तं - वह परिन्नाय - ज्ञ परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़कर परिव्वए-संयम मार्ग में चले स- वह भिक्खू - भिक्षु होता है ।