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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चदशाध्ययनम्
पदार्थान्वयः-छिन्न-छिन्नविद्या सरं-स्वरविद्या भोम-भूकम्पविद्या अंतलिक्खं-अन्तरिक्षविद्या सुविणं-स्वप्नविद्या लक्खणं-लक्षणविद्या दंड-दंडविद्या वत्थुविजं-वास्तुविद्या अंगवियारं-अंगविचारविद्या सरस्स विजयं-स्वर की विद्या जे-जो विजाहि-उक्त विद्याओं से न जीवई-आजीविका नहीं करता स-वह भिक्खूभिक्षु कहाता है।
मूलार्थ-छिनविद्या, खरविद्या, भूकंपविद्या, अन्तरिचविद्या, स्वमविद्या, लक्षणविद्या, दण्डविद्या, वास्तुविद्या, अंगविचारविद्या, और स्वर की विद्या-इन विद्याओं से जो अपनी आजीविका-जीवननिर्वाह नहीं करता, वही भिक्षु है ।
टीका-इस गाथा में यह बतलाया गया है कि साधु इन उपर्युक्त विद्याओं के द्वारा शरीरयात्रा चलाने अर्थात् आहार, पानी आदि की गवेषणा न करे । छिन्नविद्यावस्त्र, काष्ठ आदि के छेदन की विद्या । जैसे कि इस प्रकार से काष्ठ वा वस्त्र आदि छेदन किया हुआ शुभ फल देता है । स्वरविद्या-षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि स्वरों का वर्णन करना । भूकम्पविद्या-भूकम्प के द्वारा शुभाशुभ फल का वर्णन करना । यथा"शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च राजा राष्ट्रं च पीड्यते ॥" इत्यादि । अन्तरिक्षविद्या-आकाश में गन्धर्व नगरादि को देखकर उसके शुभाशुभ का विचार करना । जैसे कि-'कपिलं शस्यघाताय, माञ्जिष्ठे हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते बलक्षोभं न संशयः ॥ गन्धर्वनगरं स्निग्धं सप्राकारं सतोरणम् । सौम्या दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥” इत्यादि । स्वप्नविद्या-जिसके द्वारा स्वप्न का शुभाशुभ फल बतलाया जाय । यथा-"गायने. रोदनं ब्रूयात्रा प्रबन्धनम् । हसने शोचनं ब्रूयात् पठने कलहं तथा ॥” इत्यादि । लक्षणविद्या-जि द्वारा स्त्री-पुरुष के लक्षण वर्णन किये जायें । जैसे कि- "चक्षुःस्नेहेन सुखितो दन्तस्नेहेन च भोजनमिष्टम् । त्वक्नेहेन च सौख्यं नखस्नेहेन भवति परमधनम् ॥” इत्यादि। तथा पशुओं के शुभाशुभ लक्षण बतलाने वाली विद्या का भी इसी में समावेश समझना । दंडविद्याकाष्ठ के पर्वो-गांठों के फलाफल का वर्णन करना । जैसे कि-"एक पर्व वाली यष्टि प्रशंसा करने वाली होती है, और दो पर्व वाली क्लेशकारिणी होती है" इत्यादि । वास्तुविद्याजिसके द्वारा प्रासादादि बनाने के शुभाशुभ लक्षण वर्णन किये जाते हैं। यथा-"कुटिला भूमिजाश्चैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा । लतिनो नागराश्चैव प्रासादाः क्षितिमण्डनाः ॥