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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
मूलार्थ – मंत्र, मूल, नाना प्रकार की चिन्ता, वमन, विरेचन, धूम, नेत्रौषधि, स्नान, रुग्ण अवस्था में माता पिता आदि का स्मरण और अपने रोग की चिकित्सा, इन पूर्वोक्त वस्तुओं को ज्ञ परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़कर जो संयम मार्ग में चलता है, वही भिक्षु है ।
पञ्चदशाध्ययनम्
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टीका - प्रस्तुत गाथा में यह बतलाया गया है कि साधु इन वस्तुओं से अपना जीवन निर्वाह न करे तथा इन वस्तुओं को व्यवहार में लावे । जैसे मंत्रॐकार से लेकर स्वाहा पर्यन्त तथा हीकारादि वर्णविन्यासरूप मंत्र कहलाता है । मूल — सहदेवी, मूलिका तथा काकोल्यादि के मूल का उपयोग करना । वैद्यचिन्ता-~~ओषधि और पथ्य आदि के लिए वैद्य का चिन्तन करना । एवं वमन कराना, विरेचन देना, मनःशिला आदि ओषधियों का धूम के लिए उपयोग करना, नेत्र की ओषधि तथा संस्कार करना और सन्तानोत्पत्ति के लिए मंत्र तथा ओषधि के द्वारा संस्कृत जल से स्नान कराना, आतुर अवस्था में अपने माता पिता आदि का स्मरण कराना और रुग्णावस्था में अपनी चिकित्सा करना यह सब कुछ भिक्षु के लिए त्याज्य है जब कि उसने संसार से अपना सम्बन्ध ही छोड़ दिया तो फिर उसको इन वस्तुओं को उपयोग में लाने की आवश्यकता भी नहीं है । अतएव कहा है कि जो ज्ञ परिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़कर विशुद्ध संयम मार्ग में विचरता है, वही भिक्षुपद को अलंकृत करता है क्रियाओं का अनुष्ठान साधुवृत्ति को कलंकित करने त्याज्य कहा है ।
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। क्योंकि इन पूर्वोक्त मंत्रादि वाला है। इसी लिए इनको
अब साधु के त्यागने योग्य अन्य बातों का उल्लेख करते हैं। यथा
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वत्तियगणउग्गरायपुत्ता माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो ।
नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं,
तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खु ॥ ९ ॥