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पञ्चदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ६४३ रहित पुरुष ही विषयों से निवृत्ति प्राप्त कर सकता है। फिर जो सदनुष्ठानपूर्वक विचरता है, वह भिक्षु है । क्योंकि सदनुष्ठानपूर्वक विचरता हुआ जीव ही परोपकार कर सकता है। तथा जो सिद्धान्त को जानकर दुर्गति से आत्मा की रक्षा करने वाला हो, उसको वेदविदात्मरक्षित कहते हैं अर्थात् वही भिक्षु है । 'वेद्यते अनेन तत्त्वमिति वेदः सिद्धान्तस्तस्य वेदनं वित् तया, आत्मरक्षितो दुर्गतिपतनात् त्रायते अनेनेति वेदविदात्मरक्षितः' अथवा वेदवित्-सिद्धान्त का वेत्ता और आय-ज्ञानादि लाभ के द्वारा आत्मा की रक्षा करने वाला, और हेय-ज्ञेय-उपादेय के स्वरूप का ज्ञाता भिक्षु है। तथा जो परिषहों का विजेता, सर्वजीवों पर समभाव रखने वाला और सचित्त, अचित्त एवं मिश्रित रूप किसी पदार्थ पर भी ममत्व न रखने वाला हो, वही भिक्षु है । तथा 'सर्वदर्शी' का यह भी अर्थ किया है कि 'सर्वं दशति भक्षयति-अर्थात् साधु रसगृद्धि को छोड़ता हुआ जैसा आहार मिले, उसे समतापूर्वक सर्व ही भक्षण कर लेवे किंतु नीरस समझकर उसे फेंक न देवे ।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंअक्कोसवहं विइत्तु धीरे,
मुणी चरे लोढे निच्चमायगुत्ते । अव्वग्गमणे असंपहिढे,
जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥३॥ आक्रोशवधं विदित्वा धीरः,
मुनिश्चरेल्लाढो नित्यमात्मगुप्तः । अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः,
यः कृत्स्नमध्यासयेत् स भिक्षुः ॥३॥ पदार्थान्वयः-अक्कोसवहं-आक्रोश वध को विइत्तु-जानकर धीरे-धैर्यवान् मुणी-साधु लाढे-सदनुष्ठानयुक्त चरे-विचरे । निच्चं-सदा ही आयगुत्ते-आत्मगुप्त होकर अव्वग्गमणे-व्यग्र मन से रहित असंपहिडे-हर्ष से रहित जे-जो कसिणं-सम्पूर्ण परिषहों को अहियासिए-सहन करता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है ।