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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चदशाध्ययनम्
मूलार्थ-आक्रोश-वध आदि परिषहों को, अपने किये हुए कर्मों का फल जानकर जो धैर्ययुक्त होकर सहन करता है, तथा सदनुष्ठानयुक्त मुनि नित्य ही आत्मगुप्त होकर देश में विचरता है, एवं हर्ष-विषाद से रहित होकर जो सम्पूर्ण परिषहों को सहन करता है, वह भिक्षु है।
टीका-आक्रोशपरिषह–असभ्य वचन, वधपरिषह–घात करना, इनके उदय होने पर मुनि इस बात का विचार करे कि यह सब, मेरे पूर्व किये हुए कर्मों का ही फल है । अतः धैर्यशील मुनि उक्त परिषहों के उपस्थित होने पर भी अक्षुब्ध ही रहे अर्थात् किसी प्रकार का क्षोभ न करे । तथा सदा ही आत्मा को असंयत प्रवृत्ति से. गुप्त रक्खे, और सदनुष्ठानपूर्वक अप्रतिबद्ध होकर देश में विचरे–विहार करे । अपितु किसी भी परिषह के आने पर मन को व्यग्र न करे अर्थात् व्याकुल न हो जाय किन्तु शांतिपूर्वक उनको सहन करे तथा आक्रोशादि परिषहों को सहन करके हर्षित भी न होवे अर्थात् मैंने अमुक परिषह को जीत लिया, देखो मैं कितना शूरवीर हूँ, इस प्रकार की गर्वोक्ति से आत्मगत हर्ष को भी प्रकट न करे । इस भांति जो सम्पूर्ण परिषहों पर विजयी होता है, वही भिक्षु कहलाने के योग्य है । तात्पर्य कि भिक्षुपद की सार्थकता शांतिपूर्वक कष्टों के सहन करने में है, केवल वेषधारण कर लेने में नहीं।
अब फिर इसी विषय का वर्णन करते हैंपन्तं सयणासणं भइत्ता,
सीउण्हं विविहं च दंसमसगं। अव्वग्गमणे असंपहिडे,
जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥४॥ प्रान्तं शयनासनं भजित्वा,
शीतोष्णं विविधं च दंशमशकम् । अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः,
यः कृत्समध्यासयेत् स भिक्षुः ॥४॥