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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ पञ्चदशाध्ययनम्
इसलिए साधु के वास्ते अज्ञातकुल की गोचरी का विधान है'। इस वर्णन से 'अज्ञातैषी' का ज्ञातकुल से भिक्षा न लेने वाला यह अर्थ भी संगत प्रतीत होता है। तथा उक्त गाथा के समुञ्चय भाव पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि दीक्षित पुरुष सिंह की तरह निर्भय होकर रहे और सिंह की तरह ही विचरे । 'नियाणछिन्ने' में छिन्न शब्द का परनिपात प्राकृत होने से जानना ।
अब भिक्षु के स्वरूपवर्णन में उसके अन्य गुणों का वर्णन करते हैं । यथाराओवरयं चरेज लाढे,
विरए वेयवियायरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी,
जे कम्हिवि न मुच्छिए स भिक्खू ॥२॥ रागोपरतश्चरेल्लाढः ,
विरतो वेदविदात्मरक्षितः । प्राज्ञोऽभिभूय सर्वदर्शी,
यः कस्मिन्नपि न मूञ्छितः स भिक्षुः ॥२॥ पदार्थान्वयः-राओवरयं-राग से रहित लाढे-सदनुष्ठान से युक्त चरेजविचरे विरए-विरतियुक्त वेयविय-सिद्धान्त का वेत्ता आयरक्खिए-आत्मरक्षक पन्नेप्रज्ञावान अभिभूय-परिषहों को जीतकर सव्वदंसी-सर्वदर्शी जे-जो कम्हिवि-किसी वस्तु पर भी न मुच्छिए-मूछित नहीं होता स-वह भिक्खू-भिक्षु होता है।
मूलार्थ-राग से रहित और सदनुष्ठानपूर्वक विचरने वाला, असंयम से निवृत्त, सिद्धान्त का वेत्ता, आत्मरक्षक, बुद्धिमान, और परिषहों को जीतकर सर्वप्राणियों को अपने समान देखने वाला तथा जो किसी वस्तु पर भी मूञ्छित नहीं होता, वही भिक्षु है।
टीका-इस काव्य में भिक्षु का स्वरूप उसके गुणों द्वारा वर्णन किया गया है। जैसे कि भिक्षु उसे कहते हैं, जो राग और द्वेष से रहित हो । क्योंकि राग से