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पञ्चदशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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नियाणछिन्ने-निदान से रहित संथवं-संस्तव को जहिज-छोड़े अकामकामेकामभोगों की कामना न करने वाला वा मुक्ति की कामना करने वाला अन्नायएसीअज्ञातकुल की भिक्षा करने वाला परिव्वए-प्रतिबद्धता से रहित होकर विचरे स-वह भिक्खू-भिक्षु होता है।
मूलार्थ-मैं धर्म को प्राप्त करके मुनिवृत्ति का आचरण करूँगा [ ऐसी प्रतिज्ञा वाला ] दर्शनादि से युक्त, माया से रहित होकर क्रियानुष्ठान करने वाला, निदान और संस्तव से रहित तथा विषयों की कामना न करने वाला अपितु मोक्ष की इच्छा रखने वाला तथा अज्ञात कुल में भिक्षा करने वाला और अप्रतिबद्धविहारी जो हो, वह भिक्षु होता है।
टीका-इस गाथा में भिक्षु के कर्तव्यों का दिग्दर्शन किया गया है । जैसे कि-किसी भद्र आत्मा ने यह विचार किया कि मैं अब मुनिवृत्ति को धारण करूँगा, क्योंकि मुझको धर्म की प्राप्ति हो गई है। इस विचार के अनुसार जब वह दीक्षित हो गया तो उसको इन नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है, तभी वह भिक्षु कहला सकेगा। इसी लिए भिक्षु के निम्नलिखित नियम उक्त गाथा में बतलाये गये हैं। यथा-दर्शनादि से युक्त होना अर्थात् तत्त्वार्थ में पूर्ण श्रद्धा रखने वाला होना, माया—कपट-से रहित होकर क्रियानुष्ठान करना, तथा उसका जो भी क्रियानुष्ठान हो, वह सब निदान से रहित हो और जिसने संस्तव का त्याग कर दिया हो । संस्तव नाम सम्बन्धियों के परिचय का है । पूर्वसंस्तव माता, पिता आदि का और पश्चात् संस्तव श्वशुरादि का तथा मित्रवर्ग का होता है । एवं जो विषयों की कामना को छोड़कर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाला हो, तथा—जो भिक्षा के लिये अपनी तपश्चर्या को न बतलाने और प्रतिबन्धरहित होकर विचरने वाला हो अर्थात् जो इन पूर्वोक्त नियमों के पालन करने वाला हो, वह भिक्षु कहलाता है । यद्यपि वृत्तिकारों ने 'अज्ञातैषी' का अर्थ अपने गुणों को जतलाकर भिक्षा न लेने वाला किया है परन्तु दशाश्रुतस्कंध के पाँचवें अध्ययन में श्रावक की प्रतिज्ञा के अधिकार में ऐसा वर्णन किया है कि'प्रतिज्ञाधारी श्रावक ज्ञातकुल की गोचरी करे अर्थात् अपनी जाति की गोचरी करे क्योंकि उसमें अभी ममत्व का भाव शेष रहता है। जब वह साधु बन गया, तब उसका संसार से ममत्व सर्वथा छूट जाता है। तब उसके लिए ज्ञातकुल की गोचरी नहीं रहती।