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चतुर्दशाध्ययनम् ] · हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६३६ टीका-इस गाथा में मन्दबुद्धि पुरुषों को सद्बोध प्राप्ति के निमित्त उन भाग्यशाली जीवों का फिर से नाम लिया गया है । यथा—इषुकार राजा, उसकी कमलावती राणी, भृगुपुरोहित और उसकी धर्मपत्नी यशा तथा यशा के दोनों कुमार ये छओं जीव कर्मबन्ध के कारणभूत राग द्वेष और कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ रूप अग्नि के सर्वथा शान्त होने से परम शान्तिरूप मोक्ष को प्राप्त हो गये क्योंकि जब तक इस आत्मा में राग, द्वेष और कषायों की विद्यमानता है तब तक इसको शांति नहीं होती । जिस समय यह आत्मा कषायों से सर्वथा मुक्त हो जाता है, उस समय इसको परमनिर्वृति—निर्वाण—मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए मोक्षप्राप्ति के निमित्त कर्मबन्धनों का टूटना परम आवश्यक है और कर्मबन्धन से छूटने के लिए कषायों की निवृत्ति परम आवश्यक है तथाच कषायों की निवृत्ति संयम की आराधना से हो सकती है । अतः दर्शनज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रयी की सम्यग् उपासना के द्वारा संयम में प्रवृत्ति करने वाला जीव कर्मों के जाल को तोड़कर तथा आत्मा में रहे हुए कर्मजन्य अज्ञानान्धकार को दूर करके केवल प्राप्ति के द्वारा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनता हुआ चारों अघाती कर्मों के क्षय होने से परमंनिर्वृति-निर्वाणपद-मोक्षपद-को प्राप्त कर लेता है, जिसका कि अन्य दार्शनिकों ने कैवल्य या विदेहमुक्ति के नाम से. उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त “त्ति वेमि" पद की व्याख्या पहले की तरह ही समझ लेनी।
चतुर्दशाध्ययन समाप्त।