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________________ ६३८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् शाध्ययनम् प्रस्तुत गाथा में इस भाव को भी व्यक्त किया है कि पूर्वजन्म में किया हुआ अभ्यास उत्तर जन्म में भी सहायक होता है और उसी के द्वारा आगामी जन्म में शीघ्र सफलता प्राप्त होती है तथा अभ्यास से चारित्रावरणीय कर्म क्षयोपशम दशा को प्राप्त हो जाता है। उससे इस जीव को धर्म की प्राप्ति में विलम्ब नहीं होता। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के अभ्यास में प्रवृत्ति रखनी चाहिए। _ अब मन्दबुद्धि पुरुषों के स्मरणार्थ अध्ययन की समाप्ति करते हुए सूत्रकार उन छ। आत्माओं का नाम निर्देश करते हुए फिर कहते हैं । यथा राया सह देवीए, माहणो य पुरोहिओ। माहणी दारगा चेव, सव्वे ते परिनिव्वुडे ॥५३॥ . त्ति बेमि। इति उसुयारिजं चउद्दसमं अज्झयणं समत्तं ॥१४॥ राजा सह देव्या, ब्राह्मणश्च पुरोहितः । ब्राह्मणी दारको चैव, सर्वे ते परिनिर्वृताः ॥५३॥ इति ब्रवीमि । इति इषुकारीयं चतुर्दशमध्ययनं समाप्तम् ॥१४॥ पदार्थान्वयः-राया-राजा सह-साथ देवीए-देवी के य-और माहणोब्राह्मण पुरोहियो-पुरोहित च-और माहणी-ब्राह्मणी एव-निश्चय ही दारगा-उसके दोनों पुत्र ते-वे सव्वे-सब परिनिव्वुडे-निर्वृति—मोक्ष-को प्राप्त हुए ति बेमिइस प्रकार मैं कहता हूँ। __ मूलार्थ-राजा और उसकी राणी, ब्राह्मण और उसकी धर्मपत्नी तथा उसके दोनों पुत्र ये सब निवृति-मोक्ष को प्राप्त हुए । इस प्रकार मैं-. सुधर्माखामी-कहता हूँ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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