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चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६३३ ____ पदार्थान्वयः-उ-तु-समुच्चयार्थ में गिद्धोवमे-गृद्धपक्षी की उपमा वाले नच्चा-जानकर कामे-कामभोगों को संसारवडणे-संसार के बढ़ाने वाले व्व-जैसे उरगो-साँप सुवण्ण-गरुड़ के पासि-समीप संकमाणो-शंकता हुआ तणुं-स्तोक यत्न से चरे-विचरता है णं-वाक्यालंकार में है।
मूलार्थ-गृद्धपक्षी की उपमा वाले और संसार को बढ़ाने वाले इन कामभोगों को जानकर जैसे साँप गरुड़ के समीप शनैः २ शंकाशील होकर चलता है, उसी प्रकार तू भी संयममार्ग में यत्न से चल ।
___टीका-देवी कहती है कि हे राजन् ! ये कामभोग गीध पक्षी के मुख में रक्खे हुए मांस के टुकड़े के समान हैं और संसार के बढ़ाने वाले हैं। ऐसा जानकर गरुड़ के पास से शंकायुक्त होकर शनैः २ जाने वाले सर्प की भांति तू भी इनसे शंकित रहता हुआ यत्नपूर्वक संयममार्ग में विचरने का उद्योग कर । तात्पर्य कि जिस प्रकार सर्प गरुड़ से शंकित रहता है, उसी प्रकार मुमुक्षु को सदा पापकर्म के आचरण से सशंकित रहना चाहिए । यहाँ पर 'इव' शब्द यद्यपि भिन्नक्रम में दिया है तथापि उसका सम्बन्ध सौपर्णेय के साथ ही करना चाहिए।
जब कि इस प्रकार का उपदेश है तो फिर क्या करना चाहिए ? अब इसी विषय में कहते हैं
नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणो वसहिं वए। एवं पत्थं महारायं उस्सुयारि ति मे सुयं ॥४८॥ नाग इव बन्धनं छित्त्वा आत्मनो वसतिं व्रजेत् । एतत्पथ्यं महाराज ! इषुकार ! इति मया श्रुतम् ॥४८॥
. पदार्थान्वयः-नागो-हाथी व्व-वत् बंधणं-बन्धन को छित्ता-छेदन करके अप्पणो-आत्मा की वसहि-वस्ति को वए-जावे महारायं-हे महाराज ! एयं-यह पत्थं-पथ्यरूप उपदेश उस्सुयारि-हे इषुकार ! त्ति-इस प्रकार मे-मैंने संयं-सुना है।
मूलार्थ-जैसे हस्ती बन्धन को तोड़कर वन में चला जाता है, उसी प्रकार तू भी कर्मबन्धन को तोड़कर आत्मवसति-मोक्ष में जा। हे महाराज ! हे इषुकार ! इस प्रकार यह पथ्यरूप उपदेश मैंने सुना है।