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________________ ६३२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ चतुर्दशाध्ययनम् देखकर वज्झमाणं-अन्य पक्षियों द्वारा पीड़ित होता हुआ निरामिसं आमिष से रहित पक्षी को पीड़ा से रहित देखकर आमिस - मांस को सव्वं सर्वप्रकार से उज्झित्तात्यागकर विहरिस्सामि - विचरूँगी निरामिसा - निरामिष होती हुई । मूलार्थ - मांससहित गृद्धपक्षी को अन्य पक्षियों द्वारा पीड़ित होते हुए और मांसरहित को सुखी देखकर मैं सर्वप्रकार से मांसरहित होकर - मांस को छोड़कर विचरूँगी । टीका - देवी कमलावती कहती है कि हे राजन् ! जैसे एक पक्षी के पास मांस का टुकड़ा है। उसे देखकर अन्य पक्षी उस पर झपट पड़ते और उसे अनेक प्रकार की . . पीड़ा पहुँचाते हैं परन्तु जिस पक्षी के पास मांस नहीं होता वह आनन्दपूर्वक विचरता है अथवा जब वही पक्षी मांस के टुकड़े को छोड़ देता है तो वह सुखी हो जाता है अर्थात् फिर उसे कोई नहीं सताता । इसी प्रकार अति स्नेहयुक्त होने से ये धन धान्यादि पदार्थ भी मांस के समान हैं तथाच जो इसमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं, वे अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से पीड़ित हो रहे हैं किन्तु जिन्होंने इनको मांस का लोथड़ा समझकर त्याग दिया है वे सुखी हैं अर्थात् उनको किसी प्रकार का दुःख नहीं होता । इसलिए इन मांसतुल्य विषयभोगों का त्याग करके अर्थात् निरामिष होती हुई मैं संयममार्ग में विचरूँगी। यहां पर एकवचन की क्रिया के स्थान में बहुवचन का प्रयोग प्राकृत के 'व्यत्ययश्च' इस नियम से जानना । प्रस्तुत गाथा में धनधान्यादि पदार्थों में मूच्छित होने और उनके त्याग करने, इन दोनों बातों का फलवर्णन करते हुए शास्त्रकार ने इनकी हेयोपादेयता को स्पष्ट बतला दिया है, जिससे कि मुमुक्षु पुरुषों को अपने कर्तव्य का निर्णय करने में सुविधा रहे । अब इसी प्रस्ताव में अन्य ज्ञातव्य विषय का वर्णन करते हैं गिद्धोवमा उ नच्चाणं, कामे संसारवढ्ढणे । उरगो सुवणपासे व्व, संकमाणो तणुं चरे ॥४७॥ गृध्रोपमान् तु ज्ञात्वा कामान् संसारवर्धनान् । " उरगः सौपर्णेयपार्श्व इव, शङ्कमानस्तनु चरेत् ॥४७॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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