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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ चतुर्दशाध्ययनम्
मरिष्यसि राजन् ! यदा तदा वा, ___ मनोरमान् कामगुणान् प्रहाय । एकः खलु धर्मो नरदेव ! त्राणं,
न विद्यतेऽन्यमिहेह किश्चित् ॥४०॥ पदार्थान्वयः-रायं-राजन् ! जया-जिस समय वा-अथवा तया- उस समय तू मरिहिसि-मरेगा मणोरमे-मनोरम कामगुणे-कामगुणों को पहाय-छोड़कर हु-जिससे एको-एक धम्मो-धर्म ही नरदेव-हे नरदेव ! ताणं-त्राण है इह-इस लोक में अनंअन्य पदार्थ इह-इस लोक में मृत्यु के समय किंचि-किंचिन्मात्र भी न विजई-नहीं है।
____मूलार्थ हे राजन् ! जब मृत्यु का समय आयगा, उस समय तू अवश्य मरेगा और मनोरम-सुन्दर कामगुणों को छोड़कर मृत्यु को प्राप्त होगा। हे नरदेव ! इस लोक में मृत्यु के समय पर एक धर्म ही रक्षा करने वाला होगा। धर्म के विना अन्य कोई इस मनुष्य का त्राता नहीं है।
टीका-देवी ने फिर कहा कि हे राजन् ! जब मृत्यु का समय आयगा, उस समय तू अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होगा। तथा इन अति प्यारे और सुन्दर कामगुणों को भी त्यागकर मृत्यु को प्राप्त होगा अर्थात् इस समय जिन सांसारिक पदार्थों से तू प्रगाढ़ प्रेम कर रहा है, इनमें से कोई भी तेरा साथी बनने का नहीं है। इसलिए हे नरदेव ! विश्व में इस प्राणी का एकमात्र धर्म ही रक्षक है। धर्म के विना और कोई भी पदार्थ न तो इसका रक्षक है और न साथ जाने वाला है। प्रस्तुत गाथा में संसार के सम्बन्ध को लेकर धर्म की आवश्यकता और संसार की अनित्यता का अच्छा चित्र खींचा है। ___जब कि धर्म के विना इस जीव का कोई भी त्राता नहीं तो फिर क्या करना चाहिए ? अब इसी विषय में कहते हैं
नाहं रमे पक्विणि पंजरे वा, ___ संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं । अकिंचणा उज्जुकड़ा निरामिसा,
परिग्गहारम्भनियत्तदोसा ॥४१॥