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चतुर्दशाध्ययनम् ] ·
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः-सव्वं-सर्व जगं-जगत् जइ-यदि तुहं-तेरा होवे वा-अथवा सव्वं-सर्व धणं-धन वि-अपि शब्द से क्षेत्रादि तेरे भवे-होवें सव्वंपि-सर्व पदार्थ भी ते-तेरे लिए - अपज्जतं-अपर्याप्त हैं—तेरी तृष्णा को पूर्ण करने में असमर्थ हैं ! तं-वह पदार्थ तव-तेरे कष्टादि को मिटाने के लिए नेव-नहीं हैं ताणाय-रक्षा के लिए।
मूलार्थ-हे राजन् ! यदि यह सारा जगत् तेरा हो जाय, सारे धनादि पदार्थ भी तेरे पास हो जाये, तो भी यह सब अपर्याप्त ही है अर्थात् विश्व के सारे पदार्थ भी तेरी तृष्णा को पूरी करने में असमर्थ हैं और ये सब पदार्थ मरणादि कष्टों के समय तेरी किसी प्रकार की भी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं ।
टीका-देवी कमलावती कहती है कि हे राजन् ! यदि समस्त जगत् तेरे वश में हो जाय तथा विश्व में जितना भी धन है वह सब तेरे पास आ जाय, ऐसा होने पर भी वह सब पदार्थसमूह तेरी तृष्णा को पूर्ण नहीं कर सकता क्योंकि यह तृष्णा आकाश के समान अनन्त है और धन असंख्यात है। तथा ये सब पदार्थ तेरे जरा, रोग और मरण आदि कष्टों को मिटाने में किंचिन्मात्र भी सहायक नहीं हो सकते। अतः इनकी लालसा करनी व्यर्थ है। देवी के कथन का अभिप्राय स्पष्ट है। वह यह कि यदि कोई मनुष्य करोड़ों रुपया खर्च कर भी यह चाहे कि मुझे जरा-बुढ़ापा अथवा मृत्यु की प्राप्ति न हो तो उसकी यह इच्छा कभी सफल नहीं होती। इससे सिद्ध हुआ कि यह धनादि पदार्थ जरा और मृत्यु के कष्ट में कुछ भी वास्तविक सहायता नहीं पहुँचा सकते तो फिर ब्राह्मण के त्यागे हुए-एक प्रकार से वमन किये हुए धन को ग्रहण करने की जो जघन्य लालसा है, उसका कारण केवल बढ़ी हुई तृष्णा है, जिसकी पूर्ति बिना सन्तोष के और किसी वस्तु अथवा उपाय द्वारा नहीं हो सकती।
अब राणी फिर कहती है किमरिहिसि रायं! जया तया वा,
मणोरमे कामगुणे पहाय । एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, ___ न विजई अन्नमिहेह किंचि ॥४०॥