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________________ ६२४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्दशाध्ययनम् own वान्ताशी पुरुषो राजन्, न स भवति प्रशंसनीयः । ब्राह्मणेन परित्यक्तं, धनमादातुमिच्छसि ॥३८॥ पदार्थान्वयः-वंतासी-वमन किये हुए को खाने वाला रायं-राजन् ! पुरिसो-पुरुष न-नहीं सो-वह पसंसिओ-प्रशंसा के योग्य होइ-होता है माहणेणब्राह्मण के द्वारा परिचत्तं-त्यागे हुए धणं-धन को आदाउं-ग्रहण करने की इच्छसितुम इच्छा करते हो। मूलार्थ हे राजन् ! वमन किये हुए को खाने वाला पुरुष कभी प्रशंसा का पात्र नहीं होता । परन्तु ब्राह्मण के द्वारा त्यागे गये धन को तुम ग्रहण करने, की इच्छा करते हो! टीका-राणी कहती है कि जिस प्रकार वमन किये हुए मुक्त पदार्थ को ग्रहण करने वाला पुरुष इस लोक में प्रशंसा का पात्र नहीं बन सकता, उसी प्रकार ब्राह्मण द्वारा त्यागे हुए धन को ग्रहण करने में आपकी भी प्रशंसा नहीं होगी किन्तु निन्दा की ही अधिक संभावना है। तात्पर्य कि पहले तो आपने इस धन को संकल्प द्वारा वमन किया और अब इसे ब्राह्मण ने वमन कर दिया। इस प्रकार यह धन दो वार वमन किया गया है। अतः आप जैसे भद्र पुरुष को ऐसे वमनतुल्य हेय पदार्थ को कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।सारांश कि जैसे वान्ताशी पुरुष संसार में श्लाघनीय नहीं होता किन्तु निन्दा एवं भर्त्सना के योग्य माना जाता है, उसी प्रकार आप भी प्रशंसा के योग्य नहीं रहोगे। ___अस्तु, यदि इस वमन किये हुए धन को आप ग्रहण भी कर लें तो भी इससे आपकी बढ़ी हुई धनपिपासा की शांति होनी कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है क्योंकि तृष्णा दुष्पूर है, उसकी पूर्ति तो विश्व के सारे पदार्थ भी नहीं कर सकते। अब इसी विषय का प्रतिपादन करते हैंसव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे। सव्वं पि ते अपजत्तं, नेव ताणाय तं तव ॥३९॥ सर्व जगयदि तव, सर्वं वापि धनं भवेत् । सर्वमपि त अपर्याप्तं, नैव त्राणाय तत्तव ॥३९॥ .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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