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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । नाहं रमे पक्षिणी पञ्जर इव, छिन्नसन्ताना चरिष्यामि मौनम् । अकिञ्चना ऋजुकृता निरामिषा, परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता [ ६२७ ॥४१॥ वा - जैसे पक्खिणि विच्छेद है, जिसके पदार्थान्वयः: - न- नहीं अहं - मैं रमे रति पाती हूँ पंखणी पिंजरे - पिंजरे में संताप छिन्ना - स्नेह की संतति का मोणं- मुनिवृत्ति को चरिस्सामि - ग्रहण करूँगी अकिंचणा - द्रव्य सरलतापूर्वक अनुष्ठान करने वाली निरामिसा - विषयरूप परिग्गहारंभ नियत्तदोसा- परिग्रह और आरम्भ रूप दोष मूलार्थ - पिंजरे में रही हुई पक्षिणी की तरह मैं इस संसार में रतिआनन्द को नहीं पाती, अतः जिसमें स्नेह की सन्तति का विच्छेद हो जाता है, ऐसी मुनिवृत्ति को मैं ग्रहण करूँगी । अकिंचन, ऋजुकृत और निरामिष होकर तथा परिग्रह और आरम्भ रूप दोष से निवृत्ति को प्राप्त करती हुई । से रहित उज्जुकडामांस से रहित तथा निवृत्त हुई । टीका - इस गाथा के द्वारा कमलावती ने अपने हार्दिक भावों को बड़ी सुन्दरता से प्रकट कर दिया है । वह राजा से कहती है कि जैसे पिंजरे में रहती हुई पक्षिणी आनन्द नहीं पाती उसी प्रकार जन्म, जरा और मृत्यु आदि अनेक उपद्रवों वाले इस भव रूप पंजर में रहती हुई मैं भी आनन्द को प्राप्त नहीं करती । अत: स्नेह के बन्धन से रहित होती हुई मैं मुनिवृत्ति को धारण करूँगी । तदर्थ मैं द्रव्य और भाव से अकिंचन बनूँगी । द्रव्य से हेमादिरहित होना, भाव से कषायरहित होना । तथा सरलतापूर्वक क्रिया करने वाली, विषय रूप मांस की अभिलाषा का त्याग करती हुई और आरम्भ तथा परिग्रह रूप दोष से निवृत्ति ग्रहण करूँगी । इस प्रकार कमलावती ने, संसार से निवृत्त होकर भावसंयम ग्रहण करने का जो अभिप्राय था, उसको स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दिया । यहाँ पर 'वा' शब्द उपमा के अर्थ में आया है । तथा 'संताणछिन्ना' में छिन्न शब्द का परनिपात प्राकृत से है । एवं 'परिग्गहारंभ नियत्तदोसा' इसमें पूर्वापरनिपात अतंत्र है 1 अब फिर प्रस्तुत विषय का प्रकारान्तर से वर्णन करते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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