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________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [११२३ AAAAAAVAAVAvina मूलार्थ-जितने भी सचित्त अथवा अचित्त, अल्प अथवा बहुत पदार्थ हैं, उनको जो विना दिये ग्रहण नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। टीका-जयघोष मुनि कहते हैं कि संसार में जितने भी पदार्थ हैं-फिर वे सचित्त हों अथवा अचित्त हों तथा उन पदार्थों को अल्प प्रमाण में या अधिक प्रमाण में, विना दिये अर्थात् उनके स्वामी की आज्ञा के विना जो कभी भी ग्रहण नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । तात्पर्य यह है कि विना दिये, वस्तु का जो ग्रहण करना है, वह स्तेय-चोरी है । इसलिए कोई भी वस्तु क्यों न हो, जब तक उसका स्वामी उसके लेने की आज्ञा न दे देवे, तब तक उसको लेने की शास्त्र आज्ञा नहीं देता। अतः जो व्यक्ति विना दिये किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता, वही सच्चा ब्राह्मण है। सचित्त-सजीव-चेतना वाले पदार्थ द्विपदादि, और अचित्तनिर्जीव-चेतनारहित पदार्थ तृण भस्मादिक हैं । यहाँ पर सचेतनादि के कहने का अभिप्राय यह है कि जो तृतीय महाव्रत को धारण करने वाले हैं, वे शिष्यादि को उनके सम्बन्धिजनों की आज्ञा के विना ग्रहण नहीं कर सकते अर्थात् दीक्षा नहीं दे सकते । निर्जीव तृण भस्मादि तुच्छ पदार्थों को भी स्वामी के आदेश विना ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है । अन्यत्र भी कहा है-'परद्रव्यं यदा दृष्टम् आकुले ह्यथवा रहे । धर्मकामो न गृह्णाति ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥' इत्यादि। - अब चतुर्थ महाव्रत के प्रस्ताव में उक्त विषय का वर्णन करते हैं- . दिव्वमाणुस्सतेरिच्छं , जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं ॥२६॥ दिव्यमानुष्यतैरश्चं , यो न सेवते मैथुनम् । मनसा कायवाक्येन, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२६॥ - पदार्थान्वयः-दिव्व-देव माणुस्स-मनुष्य और तेरिच्छं-तिर्यग्सम्बन्धी जो-जो मेहुणं-मैथुन को न सेवइ-सेवन नहीं करता मणसा-मन से काय-काया से वक्केणं-वचन से तं वयं बूम माहणं-उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। 1. मूलार्थ-जो देव, मनुष्य और तिर्यच् सम्बन्धी मैथुन को मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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