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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ पञ्चविंशाध्ययनम्
वन्दनीय और पूजनीय होता है तथा तपरूप अग्नि के द्वारा तेजस्विता धारण करने वाला होता है। इसके अतिरिक्त कुशलों— तीर्थंकरों ने ब्राह्मणत्व के सम्पादक जो गुण कथन किये हैं, उन गुणों से जो अलंकृत है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । कुशलों ने गुणों के अनुसार ब्राह्मण का जो स्वरूप बतलाया है, अब उसी के विषय में कहते हैं—
जो न सजद्द आगन्तु, पव्वयन्तो न सोयइ । रमइ अजवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ॥२०॥ शोचति ।
यो न स्वजत्यागन्तुं प्रव्रजन्न
रमत
आर्यवचने, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२०॥
पदार्थान्वयः – जो-जो न सज्जइ-संग नहीं करता आगन्तु - स्वजनादि के आगमन पर पव्वयन्तो - प्रब्रजित होता हुआ न सोयइ - सोच नहीं करता परन्तु अजवयणम्मि - आर्यवचन में रमइ - रमण करता है तं - उसको वयं-हम माहणंब्राह्मण ब्रूम - कहते हैं ।
मूलार्थ - जो स्वजनादि में आसक्त नहीं होता और दीचित होता हुआ सोच नहीं करता किन्तु आर्यवचनों में रमण करता है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
टीका - प्रस्तुत गाथा में तीर्थंकरभाषित ब्राह्मणलक्षणों का दिग्दर्शन कराया गया है। अतः जिनप्रवचन के अनुसार ब्राह्मण का स्वरूप बतलाते हुए जयघोष मुनि फिर कहते हैं कि जो स्वजनादि सम्बन्धिजनों के मिलने पर वा उपाश्रय आदि में आने पर भी उनका संग नहीं करता — उनमें अनुरक्त नहीं होता और दीक्षित होकर स्थानान्तर में गमन करता हुआ शोक भी नहीं करता [ जैसे कि इनके बिना मैं क्या करूँगा इत्यादि ] अपितु आर्यवचनों तीर्थंकर भगवान् के कहे हुए वचनों में ही रमण करता है अर्थात् निस्पृह भाव से रहता है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जो किसी में आसक्ति नहीं रखता तथा हर्ष और शोक से रहित एवं स्वाध्याय में रत है, वही सच्चा ब्राह्मण है क्योंकि उसमें शास्त्रोक्त ब्राह्मणत्व के सम्पादक गुण विद्यमान हैं ।