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________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [१९१६ अब फिर कहते हैंजायरूवं जहामढे, निदन्तमलपावगं । रागदोसभयाईयं , तं वयं बूम माहणं ॥२१॥ जातरूपं . यथामृष्टं, निध्मातमलपापकम् । रागद्वेषभयातीतं . , तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२१॥ पदार्थान्वयः—जायसवं-जातरूप जहा-जैसे आमह-आमृष्ट निद्धन्तनिर्मात मल-मल पावर्ग-पावक से रागदोसभयाईयं-राग, द्वेष और भय से रहित तं-उसको वयं-हम माहणं-ब्राह्मण बूम-कहते हैं। मूलार्थ-जैसे अमि के द्वारा शुद्ध किया हुआ स्वर्ग तेजस्वी और निर्मल हो जाता है, तद्वत् रागद्वेष और भय से जो रहित है उसको हम मामय कहते हैं। टीका-'जातरूप' नाम स्वर्ण का है। जैसे मनःशिला आदि रासायनिक द्रव्यों के संयोग से अग्नि में तपाने पर निर्मल होने से सुवर्ण अपने वास्तविक स्वरूप में आता हुआ सुवर्ण कहलाता है, तात्पर्य यह है कि अशुद्ध सुवर्ण को जैसे अग्नि में डाला जाता है और द्रव्यों के संयोग से उसको मल से रहित किया जाता है, फिर वह अपने असली रूप को प्रकट करने में समर्थ होता है, अर्थात् लोक में वह स्वर्ण के नाम से पुकारा जाता है, ठीक इसी प्रकार साधनसामग्री के द्वारा जिस आत्मा ने भयरूप बाह्य और रागद्वेष रूप अन्तरंग मल को दूर करके अपने को सर्वथा निर्मल बना लिया है, उसी को यथार्थ रूप में ब्राह्मण कहते हैं । यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि जैसे संशोधित स्वर्ण अपने अपूर्व पर्याय को धारण कर लेता है, उसी प्रकार कषाय मल से रहित हुआ आत्मा अपूर्व गुण को धारण करने वाला हो जाता है । प्रस्तुत गाथा में 'म' अलाक्षणिक है। और 'निद्धन्तमलपावर्ग' में 'पावक' शब्द पदव्यत्यय से प्रयुक्त हुआ है । जैसे कि-पावकेन वह्निना निर्मातम्' इत्यादि । यदि 'म' को अलाक्षणिक न मानें तो 'मटुं' का अर्थ महार्थ भी किया जा सकता है, जो कि मोक्ष का वाचक है। । अब फिर कहते हैं- .. . ... ... ........"
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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