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पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१११३ . विजयघोष के उक्त वक्तव्य को सुनने के अनन्तर जयघोष मुनि ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा, अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैं
अग्गिहुत्तमुहा वेया, जन्नट्टी वेयसा मुहं । नक्खत्ताण मुहं चन्दो, धम्माणं कासवो मुहं ॥१६॥ अग्निहोत्रमुखा वेदाः, यज्ञार्थी वेदसां मुखम् । नक्षत्राणां मुखं चन्द्रः, धर्माणां काश्यपो मुखम् ॥१६॥
__पदार्थान्वयः-अग्गिहुत्तमुहा-अग्निहोत्रमुख वेया-वेद हैं जनही-यज्ञ का अर्थी वेयसा-यज्ञ से जो कर्म क्षय करता है वही यज्ञ का मुहं-मुख है नक्खचाणं-नक्षत्रों का मुहं-मुख चन्दो-चन्द्रमा है धम्माणं-धर्मों का मुहं-मुख कासवोकाश्यप-ऋषभदेव है।
___ मूलार्थ-अग्निहोत्र वेदों का मुख है । यज्ञ के द्वारा कर्मों का क्षय करना यज्ञ का मुख है । चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है और धर्मों का मुख काश्यप-भगवान् ऋषभदेव हैं।
टीका-विजयघोष के उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए महामुनि जयघोष कहते हैं कि अग्निहोत्र वेदों का मुख है अर्थात् अग्निहोत्रप्रधान वेद हैं। कारण कि वेदों में अग्निहोत्र को ही प्रधानता दी गई है। इसी लिए वेदों में नित्यप्रति अग्निहोत्र करने की आज्ञा दी गई है। सो यह अग्निहोत्र वेदों का प्रधान प्रतिपाद्य विषय होने से वेदों का मुख माना गया है। यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि जयघोष मुनि ने जिस आशय को लेकर यह कथन किया है, वह बड़ा ही गम्भीर है। वे वेद और उसमें प्रतिपादन किये गये अग्निहोत्र आदि को विजयघोष की अपेक्षा किसी और ही दृष्टि से देख रहे हैं । अतएव उनके मत में इन दोनों शब्दों की व्याख्या भी कुछ और ही प्रकार की है, जो कि युक्तियुक्त और सर्वथा हृदयग्राही है। यथा-वेद नाम ज्ञान का है क्योंकि वेद शब्द 'विद् ज्ञाने' अर्थात् ज्ञानार्थक 'विद्' धातु से निष्पन्न होता है। जब ज्ञान के द्वारा सब द्रव्यों का स्वरूप भली भाँति जान लिया गया तो फिर अपने आत्मा को कर्मजन्य संसारचक्र से मुक्त करने के लिए तप रूप