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' उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चविंशाध्ययनम्
अग्नि के द्वारा कर्मरूप इन्धन को जलाकर सद्भावनारूप आहुति की आवश्यकता होती है। एतदर्थ दीक्षित को अग्निहोत्र की परम आवश्यकता है। जैसे कि अन्यत्र कहा भी है-'कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढसद्भावनाहुतिः । धर्मध्यानामिना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ॥' अर्थात् धर्मध्यानरूप अग्नि के द्वारा क रूप इन्धन को जलाना और सद्भावनारूप आहुति का प्रक्षेप करना चाहिए। इस प्रकार दीक्षित के लिए अग्निहोत्र का विधान है। जैसे कि ऊपर कहा गया है कि अग्निहोत्र वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य कर्म है। इसी लिए 'अग्निमुखा वै वेदाः' यह कहा गया है। इसके अतिरिक्त वेदों का जो आरण्यक भाग है, उसको अधिक महत्त्व दिया गया है। जैसे दधि का सार नवनीतमक्खन-होल है, ठीक उसी प्रकार आरण्यक भाग को वेदों का सार बतलाया गया . है । यथा—'नवनीतं यथा दध्नश्चन्दनं मलयादिव । ओषधिभ्योऽमृतं यद्वद् वेदेष्वारण्यकं तथा॥' इत्यादि। आरण्यक में धर्म का दश प्रकार से कथन किया गया है। यथा'सत्यं तपश्च सन्तोषः क्षमा चारित्रमार्जवम् । श्रद्धा धृतिरहिंसा च संवरश्च तथापरः॥' इनका अर्थ स्पष्ट है। अब द्वितीय प्रश्न का उत्तर देते हैं। यथा-वेद के कारण जो कर्म क्षय किये जाते हैं, उसे वेदसा कहते हैं । वही संयमरूप भावयज्ञ है। उसका अनुष्ठान करने वाला यज्ञार्थी कहलाता है। प्रश्नव्याकरण में अहिंसा को यज्ञ के नाम से वर्णन किया है। अतः सर्व प्रकार से अहिंसा के पालन करने वाले को यज्ञार्थी कहते हैं। इसके अतिरिक्त निघण्टु-वैदिककोष–में यज्ञ का नाम 'वेदसा' भी लिखा है । अतः यज्ञ का मुख–उपाय अहिंसादि कर्म ही है । एवं नक्षत्रों का मुख चंद्रमा है। कारण कि वह उनका स्वामी है । नक्षत्रों के प्रकाशमान होते हुए भी चन्द्रमा के विना रजनी अमा कहलाती है । अतः नक्षत्रों में चन्द्रमा की ही प्रधानता है । इसके अतिरिक्त व्यापारविधि में भी चान्द्र संवत्सर और चान्द्रमास की ही प्रधानता मानी जाती है। इसी तरह तिथियों की गणना भी चन्द्रमा के ही अधीन है । अत: चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है। आदि प्ररूपक होने से धर्मों में प्रधानता काश्यप अर्थात् भगवान् ऋषभ देव की है । कारण कि इस अवसर्पिणी काल के तृतीय समय के पश्चिम भाग में धर्म की प्ररूपणा श्रीऋषभदेव ने ही की है। आरण्यक में लिखा है-'ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा तेन भगवता ब्रह्मणा स्वयमेव चीर्णानि प्रणीतानि ब्राह्मणानि । यदा च तपसा प्राप्तपदं यद् ब्रह्म केवलं तदा