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१९०८ ]
उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चविंशाध्ययनम्
विजयघोष के द्वारा प्रतिषेध किये जाने पर भी समभाव में स्थिर रहने वाले जयघोष मुनि ने उसके प्रति जो कुछ कहा, उसका दिग्दर्शन कराने से पहले जिस हेतु को लेकर वह कहा, अब उसका वर्णन करते हैंनन्नटुं पाणहेउं वा, नवि निव्वाहणाय वा। तेसिं विमोक्खणदाए, इमं वयणमब्बवी ॥१०॥ नान्नाथ पानहेतुं वा, नापि निर्वाहणाय वा। तेषां विमोक्षणार्थम्, इदं वचनमब्रवीत् ॥१०॥ .
पदार्थान्वयः-नन्नट्ठ-न तो अन्न के लिए वा-अथवा पाणहेउं-पानी के लिए वा-तथा नवि-न ही निव्वाहणाय-वस्त्रादि के लिए अपितु तेसिं-उनकीयाजकों की विमोक्खणढाए-विमुक्ति के लिए इमं-यह वक्ष्यमाण वयणम्-वचन अब्बवी-बोले।
मूलार्थ-न तो अन के लिए और न पानी के लिए तथा न किसी प्रकार के वस्त्रादि निर्वाह के लिए किन्तु उन याजकों को कर्मबन्धन से मुक्त कराने के लिए जयघोष मुनि ने उनके प्रति ये वक्ष्यमाण वचन कहे ।
टीका-शास्त्रकारों का आदेश है कि साधु किसी को जो कुछ भी उपदेश दे, वह किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर न दे। तात्पर्य यह है कि साधु का धर्मोपदेश न तो अन्नपानादि की प्राप्ति के लिए होना चाहिए और न वनादि के निर्वाहार्थ । मुनिजनों का उपदेश, अपनी यशःकीर्ति के लिए भी न होना चाहिए किन्तु कर्मों की निर्जरा और अन्य जीवों को संसारचक्र से विमुक्त कराने के लिए ही होना चाहिए । बस, इसी साधुजनोचित्त कर्त्तव्य को ध्यान में रखकर जयघोष मुनि ने जो कुछ उन याजकों के प्रति उपदेशरूप में कहा उसका प्रयोजनमात्र, उनको कर्मबन्धनों से मुक्त कराकर परमानन्द को प्राप्त कराना है। सारांश यह है कि इस प्रकार से प्रतिषेध किये जाने पर भी जयघोष मुनि ने उनको उपदेश दिया परन्तु वह अन्न, पानी या वस्त्रादि के लाभार्थ नहीं किन्तु उनके सद्बोधार्थ अथच विमोक्षणार्थ ही परम दयालु मुनि ने उनके प्रति सब कुछ कहा ।