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ध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीका सहितम् ।
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पदार्थान्वयः — सो - वह जयघोष नामा मुनि तत्थ - उस यज्ञ में एव- इस प्रकार पडिसिद्धो-प्रतिषेध किया हुआ जायगेण - यज्ञकर्त्ता ने महामुखी - महामुनि नविन तो रुट्टो — रुष्ट — कद्ध — हुए नवि-न तुट्ठो - तुष्ट – प्रसन्न — हुए उत्तमट्ठउत्तमार्थ — मोक्ष के गवेसओ - गवेषक ।
मूलार्थ - इस प्रकार उस यज्ञ में भिक्षा के लिए प्रतिषेध किये गये महामुनि जयघोष न तो रुष्ट हुए और न ही प्रसन्न हुए क्योंकि वे उत्तमार्थमुक्ति की गवेषणा करने वाले थे ।
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टीका - क्रोध, मान, माया आदि कषायों पर विजय प्राप्त करने वाले मुनिजनों की आत्मा कितनी उज्ज्वल होती है और राग-द्वेष के मल से वह कितनी पृथक् हुई होती है, इस भाव का चित्र प्रस्तुत गाथा में बड़ी सुन्दरता से खींचा गया है । विजयघोष के अभिमानपूर्ण अकिंचित्कर वचनों का जयघोष मुनि की आत्मा पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। जैसे साधारण सी मछली के कूदने पर महासमुद्र की गम्भीरता में अंशमात्र भी क्षोभ नहीं होता, इसी प्रकार विजयघोष याचक के तुच्छ शब्दों से जयघोष मुनि के, राग-द्वेष से रहित, प्रशान्त और गम्भीर अन्तःकरण में अणुमात्र भी क्षोभ उत्पन्न नहीं हुआ । तात्पर्य यह है कि उनके चित्त में अल्पमात्र भी विकृति नहीं आई । उन्होंने विजयघोष के इस व्यवहार पर न खेद प्रकट किया और न प्रसन्नता ही व्यक्त की किन्तु अपने निज स्वभाव में ही स्थिर रहे । कारण कि वे महामुनि थे और मोक्ष के गवेषक थे । वास्तव में विचार किया आय तो आगमसम्मत भिक्षु का यही धर्म है, जिसका आचरण जयघोष मुनि ने किया । भिक्षा के लिए जाने वाले मुनि के विषय में शास्त्रकार कहते हैं कि 'बहु परघरे अत्थि विविहं खाइमं साइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे इच्छं दिज्जापरों प वा ॥ [ बहुपरगृहेऽस्ति विविधं खाद्यं स्वाद्यम् । न तस्मै पण्डितः कुप्येदिच्छया दद्यात्परो न वा ।।] । अर्थात् गृहस्थ के घर में अनेक प्रकार के खाद्य और स्वाद्य पदार्थ होते हैं । यदि भिक्षा के निमित्त घर में आये हुए साधु को गृहस्थ वे पदार्थ नहीं देता तो साधु उस पर धन करे क्योंकि किसी पदार्थ को देना न देना उसकी गृहस्थ की— इच्छा पर निर्भर है । उत्तमार्थ मोक्ष का नाम है क्योंकि मोक्ष से बढ़कर और कोई भी उत्तम अर्थ — पुरुषार्थ नहीं है ।