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पञ्चविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
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। जयघोष मुनि ने परोपकार बुद्धि से अपने लघु भ्राता विजयघोष के प्रति क्या कहा ? अब इस विषय में कहते हैंनवि जाणासि वेयमुहं, नवि जन्नाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जं च, जं च धम्माण वा मुहं ॥११॥ जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य। । न ते तुमं वियाणासि, अह जाणासि तो भण ॥१२॥ नापि जानासि वेदमुखं, नापि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं यच्च, यच्च धर्माणां वा मुखम् ॥११॥ ये समर्थाः समुद्धत्, परमात्मानमेव च। न तान् त्वं विजानासि, अथ जानासि तदा भण ॥१२॥
. पदार्थान्वयः-नवि-न तो जाणासि-तुम जानते हो वेयमुहं-वेदों के मुख को नवि-और न जं-जो जन्नाण मुहं-यज्ञों का मुख है उसको च-और जं-जो नक्खत्ताण-नक्षत्रों के मुहं-मुख को वा-अथवा जं-जो च-पुनः धम्माण-धर्मों के मुहं-मुख को। .. जे-जो समत्था-समर्थ हैं समुद्धत्तु-उद्धार करने परम्-पर का य-और अप्पाणम्-आत्मा का एव-निश्चयार्थक है ते–उनको तुम-तुम न-नहीं वियाणासिजानते अह-यदि जाणासि-जानते हो तो-तो भण-कहो।
- मूलार्थ-न तो तुम वेदों के मुख को जानते हो और न यज्ञों के मुख को । नक्षत्रों के मुख को भी तुम नहीं जानते और धर्मों का जो मुख है, उसका भी तुमको ज्ञान नहीं । जो अपने तथा पर के आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं, उनको भी तुम नहीं जानते । यदि जानते हो तो कहो। .
टीका-प्रस्तुत दोनों गाथाओं में विजयघोष के कथनानुसार ही जयघोष मुनि ने अनुक्रम से उत्तर दिया है । जयघोष मुनि कहते हैं कि तुमको यह भी पता नहीं कि वेदों का मुख क्या है ? तात्पर्य यह है कि वेदों में जिस बात की