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चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६२१ तप से उदारा-प्रधान धीरा-सत्त्व वाले हु-निश्चय ही भिक्खारियं-भिक्षाचरी को चरंति-आचरते हैं।
मूलार्थ-जैसे रोहित जाति का मत्स्य निर्बल जाल को छेदन करके चला जाता है, उसी प्रकार कामगुणों को त्यागकर ये मेरे पुत्र जा रहे हैं क्योंकि तपःप्रधान और धर्मधुरंधर धीर पुरुष ही भिक्षाचर्या-मुनिवृत्ति-का अनुसरण करते हैं ।
____टीका-जैसे कोई बलवान् पुरुष निर्बल-जीर्ण वस्तु को तोड़कर अर्थात् उसके प्रतिबन्ध को दूर करके आगे निकल जाता है अथवा जैसे रोहित मत्स्य निर्बल जाल में फँसने पर उसे अपनी तीक्ष्ण पूंछ से काटकर उसके बन्धन से निकल जाता है, उसी प्रकार मेरे ये पुत्र कामभोगरूप जाल को तोड़कर प्रव्रज्या के लिए जा रहे हैं। परन्तु यह भी कोई साधारण काम नहीं अर्थात् भिक्षाचर्या-संयमवृत्ति को पालन करना धीर पुरुषों का ही काम है, जो कि धर्म में बलवान् वृषभ की तरह धुरंधर हो और तप के आचरण में प्रधान हो । तात्पर्य कि संसार के विषयभोगों का त्याग करके जिस मुनिवृत्ति को ग्रहण करने के लिये ये कुमार जा रहे हैं, वह भी परम धीर और गम्भीर प्रकृति के पुरुषों द्वारा ही आचरण की जा सकती है ।
____ पति के इस उपदेश को सुनकर बोध को प्राप्त हुई यशा ने अपने मन में जो कुछ विचार किया, अब उसका वर्णन करते हैं
नहेव कुंचा समइक्कमंता,
तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। पलेंति पुत्ता य पई य मझं,
ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्का ॥३६॥ नभसीव क्रौञ्चाः समतिक्रामन्तः,
ततानि जालानि दलित्वा हंसाः। परियान्ति पुत्रौ च पतिश्च मम,
तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका ॥३६॥