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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ चतुर्दशाध्ययनम्
- दलन
पदार्थान्वयः— नहे - आकाश में कुंचा - क्रौंच पक्षी व-वत् समइकमंतासम्यक् प्रकार से जाते हैं तयाणि - विस्तीर्ण जालागि - जाल को दलित्तु-द करके हंसा-हंस—पक्षी जाते हैं उसी प्रकार पलेंति-जाते हैं मज्झं- मेरे पुत्ता-पुत्र - और पई - पति य - पुनः ते-उनके साथ अहं - मैं एक्का - अकेली कहं - कैसे नाणुगमिस्सं-न जाऊँ ।
मूलार्थ - आकाश में सम्यक् प्रकार से जैसे क्रौंच पक्षी जाते हैं और विस्तृत जाल को भेदन करके जैसे हंस चले जाते हैं, उसी प्रकार मेरे पुत्र और पति संसार को छोड़कर जा रहे हैं, तो फिर अकेली मैं उनके साथ क्योंकर न जाऊँ अर्थात् मुझे भी उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए ।
टीका - इस गाथा में यशा देवी के मानसिक विचारों का दिग्दर्शन कराया गया है । वह मन में विचार करती है कि जैसे आकाश में क्रौंच पक्षी अव्याहत गति से चले जाते हैं और जैसे जालों को अनर्थरूप जानकर उनके अनेक खंड करके हंस चले जाते हैं, उसी प्रकार मेरे पुत्र और पतिदेव भी विषयों के विकट जाल को तोड़कर क्रौंच और हंस की तरह संयम रूप आकाश में अव्याहत रूप से विचरने के लिये जा रहे हैं। जब कि ऐसी अवस्था है तो मैं अकेली घर में कैसे रहूँ अर्थात् मैं भी इनके पीछे ही क्यों न जाऊँ ? पुत्रों और पति के चले जाने पर पीछे स्त्री का घर में रहना किसी प्रकार से भी शोभा योग्य नहीं माना जाता । अतः मुझे भी इनके साथ ही संयमत्रत ग्रहण कर लेना चाहिए ।
इसके अनन्तर भृगु पुरोहित, उसकी धर्मपत्नी और दोनों कुमार इन चारों की एक सम्मति होने पर ये चारों ही वीतराग देव के धर्म में दीक्षित हो गये अर्थात् चारों संयम मार्ग को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार उनके संयम ग्रहण करने के अनन्तर जो कुछ हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं। यथा—
पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोचाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुडुम्बसारं विउलुत्तमं च, रायं अभिक्खं समुवाय देवी ||३७||