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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ चतुर्दशाध्ययनम्
मूलार्थ - हे प्रिये ! जैसे सर्प अपने शरीर में उत्पन्न हुई काँचली को त्याग कर निरपेक्ष होता हुआ भाग जाता है, उसी प्रकार तेरे ये दोनों ही पुत्र सांसारिक भोगों को छोड़कर चले जा रहे हैं। जब ऐसा है तब मैं भी उनके साथ ही क्यों न जाऊँ ? अर्थात् मैं अकेला यहाँ पर क्या करूँ ।
टीका - भृगु जी कहते हैं कि हे प्रिये ! जिस प्रकार सर्प अपने शरीर में उत्पन्न हुई काँचली को निकालकर परे फेंक देता है और स्वयं वहाँ से चला जाता है और पीछे फिर कर उसको देखता तक भी नहीं, इसी प्रकार तेरे ये दोनों पुत्र संसार के विषयभोगों को अति तुच्छ समझकर उन्हें छोड़कर जा रहे हैं । ऐसी दशा में मैं इनके बिना अकेला घर में बैठा रहूँ, यह किस प्रकार उचित समझा जा सकता है । तो फिर मैं भी इनके साथ ही क्यों न चला जाऊँ ? तात्पर्य कि मेरे जैसे व्यक्ति को इन योग्य पुत्रों के विना घर में रहना किसी प्रकार से भी उचित नहीं । अतः मैं इनके साथ ही चले जाने को श्रेयस्कर समझता हूँ । अब फिर इसी विषय में प्रकारान्तर से कहते हैं-..
विन्दित्तु जालं अबलं व रोहिया,
मच्छा जहा कामगुणे पहाय । धोरेयसीला तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खारियं चरन्ति ॥ ३५ ॥
छित्त्वा जालमबलमिव रोहिताः,
मत्स्या
यथा कामगुणान् प्रहाय । धौरेयशीलास्तपसा उदाराः,
धीराः खलु भिक्षाचर्यां चरन्ति ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः—छिंदित्तु-छेदन करके जालं - जाल को अबलं व-निर्बल की
तरह जहा-जैसे रोहिया - रोहित जाति का मच्छा - मत्स्य उसी तरह कामगुणे - .
कामगुणों को पहाय - छोड़कर धोरेय - धौरी - वृषभवत् सीला- स
- स्वभाव तवसा -