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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] .. हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६१६ टीका-य —यशा कहती है कि हे स्वामिन् ! आप दीक्षा के लिये उद्यत तो हो रहे हो परन्तु कहीं ऐसा न हो कि दीक्षा लेकर उसके कष्टों का अनुभव करते हुए अपने सहोदर भाइयों वा अन्य सम्बन्धियों को स्मरण करने लग जायँ ? जैसे कि प्रतिश्रोत में गमन करने वाला बूढ़ा हंस अपनी असमर्थता के कारण जल में ही निमग्न हो जाता है । अतएव मैं आपसे निवेदन करती हूँ कि आप मेरे साथ गृहवास में रहते हुए सांसारिक सुखों का अनुभव कीजिए क्योंकि भिक्षाचर्या - भिक्षावृत्ति— भिक्षु बनकर घर घर में माँगना तथा अप्रतिबंद्ध होकर ग्राम २ वा नगर २ में विचरना बड़ा ही कष्टजनक है। यहाँ पर विहार शब्द साधु के समस्त आचारों का उपलक्षण है । कहने का तात्पर्य है कि आप इसके लिये शीघ्रता मत करें क्योंकि संयम का पालन करना कुछ सहज काम नहीं है । अतः कुछ समय और घर में व्यतीत करो । फिर इस पर विचार करना । वृत्तिकार ने 'खु' शब्द वाक्यालंकार में ग्रहण किया है । 1 अब भृगुपुरोहित कहते हैं जहा य भोई तणुयं भुयंगो निम्मोयणि हिच्च पलेइ मुत्तो । एमेए जाया पयहन्ति भोए, ते हं कहं नाणुगमिस्समेको ॥३४॥ यथा च भवति ! तनुजां भुजङ्गः निर्मोचनीं हित्वा पर्येति मुक्तः । एवमेतौ जातौ प्रजहीतो भोगान्, तौ अहं कथं नानुगमिष्याम्येकः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः -- भोई - हे प्रिये ! जहा- जैसे य- पुनः भुयंगो - सर्प तणुयं - शरीर में उत्पन्न हुई निम्मोयणि- काँचली को हिच्च-छोड़ करके पलेइ-भाग जाता है मुत्तोनिरपेक्ष होता हुआ एमे - इसी प्रकार ए- तेरे जाया- दोनों पुत्र भोए - भोगों को पयहंतिछोड़ते हैं ते- - उन दोनों के साथ अहं - मैं इक्को - अकेला कहं- कैसे नाणुगमिस्सं-न जाऊँ 1
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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