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________________ ६१८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ चतुर्दशध्ययनम् प्रकार अब इन विकारों के संग को छोड़ता हूँ। तथा यह भी ध्यान रहे कि मैं संसार को जीवन के वास्तें नहीं छोड़ता किन्तु लाभ अलाभ, सुख और दुःख का सम्यक् से निरीक्षण करता हुआ मुनिवृत्ति को धारण कर रहा हूँ क्योंकि जब तक युवावस्था का कुछ अंश बना हुआ है, तब तक ही संयम क्रिया के अनुष्ठान प्राय: अधिक सफलता की संभावना रहती है। तात्पर्य कि मेरी दीक्षा का कारण युवावस्था को स्थिर रखना नहीं अपितु परमार्थसम्बन्धी लाभालाभ और सुख-दु:ख का अनुभव करना है । अतः मैं दीक्षा के लिये उद्यत हुआ हूँ । I पति के उक्त विचार को सुनकर उससे सहमत न होती हुई. यशा उसके प्रति फिर कहती है— मा हु तुमं सोयरियाण सम्मरे, जुणो व हंसो डिसोत्तगामी । भुंजाहि भोगाइ मए समाणं, दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो ॥ ३३ ॥ मा खलु त्वं सौन्दर्याणां स्मार्षीः, जीर्ण इव हंसः प्रतिस्रोतोगामी । भुंक्ष्व भोगान् मया समं, दुःखं खलु भिक्षाचर्याविहारः ॥३३॥ पदार्थान्वयः — हु- निश्चय तुम तुम सोयरियाण - अपने सगे भाइयों को मा सम्मरे-मत स्मरण करो जुनो - जीर्ण हंसो - हंस व - वत् पडिसुतगामी -प्रतिश्रोत का गामी होता हुआ भोगाई -भोगों को मए समाणं- मेरे साथ भुंजाहि-भोगो खु-निश्चय ही भिक्खायरिया-भिक्षाचर्या और विहारो - विहार दुःखं - दुःख रूप हैं । मूलार्थ - भृगुपत्नी यशा ने कहा कि हे पति ! प्रतिस्रोतगामी जीर्ण हंस की तरह तुम अपने भाइयों का स्मरण मत करो किन्तु मेरे साथ भोगों को भोगो क्योंकि यह भिक्षावृत्ति और विहार निश्चय ही दुःख रूप हैं।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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