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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [पञ्चविंशाध्ययनम् अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे। विजयघोसि ति नामेणं, जन्नं जयइ वेयवी ॥४॥
अथ तस्मिन्नेव काले, पुर्यां तत्र ब्राह्मणः । विजयघोष इति नाम्ना, यज्ञं यजति वेदवित् ॥४॥
पदार्थान्वयः-अह-अथ तेणेव-उसी कालेणं-काल में तत्थ-उस पुरीएनगरी में माहणे-ब्राह्मण विजयघोसि-विजयघोष त्ति-इस नामेणं-नाम से प्रसिद्ध जन-यज्ञ का जयइ-यजन करता था वेयवी-वेदवित्-वेदों का ज्ञाता। ..
मूलार्थ—उस समय उसी नगरी में वेदों का ज्ञाता विजयघोष इस नाम से विख्यात एक बाबय यज्ञ करता था।
टीका-जिस समय जयघोष मुनि नगरी के समीपवर्ती मनोरम उद्यान में विराजमान थे, उस समय उस नगरी में विजयघोष इस नाम से विख्यात और वेदों के ज्ञाता उनके छोटे भ्राता ने एक यज्ञ का आरम्भ कर रक्खा था अर्थात् यज्ञ कर रहा था। [गंगातट पर नित्यकर्म करते हुए जयघोष को सर्प-मूषक वाली घटना देखकर वैराग्य उत्पन्न होना और जंगल में जाकर उनका एक मुनि के पास धर्म में दीक्षित होना आदि किसी भी घटना का विजयघोष को ज्ञान नहीं। भ्राता के गंगा जी से लौटकर न आने और इधर-उधर ढूँढने पर भी न मिलने से विजयघोष ने यही निश्चय कर लिया कि मेरे भ्राता गंगा में बह गये और मृत्यु को प्राप्त हो गये । इस निश्चय के अनुसार विजयघोष ने अपने भाई का शास्त्रविधि के अनुसार सारा और्द्धदैहिक क्रियाकर्म किया । जब जयघोष को मरे अथवा गये को अनुमानतः चार वर्ष हो गये, तब विजयघोष ने अपने भाई का चातुर्वार्षिक श्राद्ध करना आरम्भ किया। यही उसका यज्ञानुष्ठान था, ऐसी वृद्धपरम्परा चली आती है। ] कुछ भी हो, विजयघोष का यज्ञ करना तो प्रमाणित ही है। फिर वह चाहे भ्राता के निमित्त हो अथवा और किसी उद्देश्य से हो । यज्ञ से यहाँ पर द्रव्ययज्ञ का ही ग्रहण है, भावयज्ञ का नहीं। इसके अतिरिक्त यहाँ पर सप्तमी के स्थान में तृतीया का प्रयोग 'सुप्' के व्यत्यय से जानना । 'अर्थ' शब्द उपन्यासार्थक है।