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पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ११०१ टीका-प्रस्तुत गाथा में मुनि के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में और उसके वाराणसी में पधारने का उल्लेख किया गया है। मुनि के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यथा-वह इन्द्रियसमूह का निग्रह करने वाला अर्थात् इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला और सन्मार्ग-मोक्षमार्ग पर चलने वाला अर्थात् पूरा संयमी और धर्मात्मा था तथा प्रामानुग्राम विचरता हुआ अर्थात् अपने सदुपदेश से संसारी जीवों को धर्म का लाभ पहुंचाता हुआ वाराणसी नगरी में आया । अपने २ विषयों की ओर जाती हुई चक्षुरादि इन्द्रियों को रोकना इन्द्रियनिग्रह है।
वाराणसी नगरी में पधारने के पश्चात् जयघोष मुनि जिस स्थान में ठहरे, अब उसका उल्लेख करते हैं
वाणारसीए बहिया, उज्जाणम्मि मणोरमे। फासुए. सेजसंथारे, तत्थ वासमुवागए ॥३॥ वाराणस्यां . बहिः, उद्याने मनोरमे । प्रासुके शय्यासंस्तारे, तत्र वासमुपागतः ॥३॥
पदार्थान्वयः–वाणारसीए-वाराणसी के बहिया-बाहर मणोरमे-रमणीय उआणम्मि-उद्यान में फासुए-प्रासुक–निर्दोष सेजसंथारे-शय्या और संस्तारक पर तत्थ-उस वन में वासम्-निवास को उवागए-प्राप्त किया।
- मूलार्थ-वे मुनि वाराणसी के बाहर मनोरम नामा उद्यान में प्रासुकनिर्दोष-शय्या और संस्तारक पर विराजमान होते हुए वहाँ रहने लगे।
टीका-इस गाथा में मुनि के निवास योग्य भूमि का उल्लेख किया गया है। जैसे कि वह जयघोष मुनि वाराणसी नगरी के समीपवर्ती एक मनोरम नाम उद्यान में आकर ठहर गये । वहाँ पर प्रासुक भूमि और तृणादि को देखकर तथा उनके स्वामी की आज्ञा को लेकर उस पर विराजमान हो गये । प्रासुक शब्द का अर्थ है निर्जीव—प्राणरहित-अचित्त अर्थात् साधु के ग्रहण करने योग्य निर्दोष । 'प्रगता असवः प्राणा येषु ते प्रासुकाः' ।
___जयघोष मुनि के इस प्रकार नगरी के बाहर शुद्ध और निर्दोष भूमि पर विराजमान हो जाने के पश्चात् जो वृत्तान्त हुआ, अब उसका उल्लेख करते हैं