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________________ चतुर्विशाध्ययनम् ] . हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०६१ संरम्भसमारम्भे , आरम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज जयं जई ॥२१॥ .. संरम्भे समारम्भे, आरम्भे च तथैव च । मनः प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेद्यतं यतिः ॥२१॥ पदार्थान्वयः-संरम्भ-संरंभ समारम्भ-समारम्भ तहेव-उसी प्रकार आरम्मे-आरम्भ में य-फिर पवत्तमाणं-प्रवृत्त हुए मणं-मन को जयं-यतना वाला जई-यति नियत्तेज-निवृत्त करे-रोके। मूलार्य-संयमशील मुनि संरम्म, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत हुए मन को निवृत्त करे-उसकी प्रवृत्ति को रोके । टीका-इस गाथा में मन के संकल्पों का दिग्दर्शन कराते हुए उसको वहाँ से रोकने का आदेश किया गया है । यथा, संरम्भ-मैं इसको मार दूं, ऐसा मन में विचार करना संरम्भ कहाता है। समारम्भ-किसी को पीड़ा देने के लिए मन में संकल्प करना तथा किसी का उच्चाटनादि के लिए ध्यान करना समारम्भ है। आरम्भ-जो अत्यन्त क्लेश से पर जीवों के प्राण हरण करने के लिए अशुभ ध्यान का अवलंबन है, उसे आरम्भ कहते हैं । सो इस प्रकार के अनिष्टजनक मानसिक संकल्पों से संयमशील यति को सदा पृथक् रहना चाहिए अर्थात् मन में स्थान नहीं देना चाहिए। किन्तु जो शुभ संकल्प हैं, उनकी ओर मन को प्रवृत्त करना चाहिए, जिससे अन्य जीवों का उपकार और स्वात्मा का उद्धार हो जाय । इस कथन से व्यवहार मनोगुप्ति का लक्षण दिखलाया गया है। जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं-'असत्यामृषा उभयस्वभावविकलमनोदलिकव्यापाररूपमनोयोगगोचरा मनोगुप्तिः' अर्थात् जो दोनों प्रकार–सत्यासत्य के भावों से विकल होकर मनोयोग की प्रवृत्ति होती है, उसे असत्यामृषा मनोगुप्ति कहते हैं जिस समय मनोगुप्ति के करने का समय प्राप्त नहीं हुआ, उस समय मन के समवधारण द्वारा शुभ संकल्पों से मनोयोग के व्यापार का प्रयोग करे। अब वाग्गुप्ति के विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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