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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[चतुर्विंशाध्ययनम्
करने वाला होइ-होता है आवायम्-आता है असंलोए-देखता नहीं आवाए-आता है च-और संलोए-देखता भी है । एव-पादपूर्ति में है।
मूलार्थ-१ आता भी नहीं और देखता भी नहीं। २ आता नहीं परन्तु देखता है। ३ आता है परन्तु देखता नहीं। ४ आता भी है और देखता भी है।
टीका-जब मल मूत्र आदि का त्याग करना हो, तब १० बोल-अंक देखकर उनका—मल मूत्र आदि का त्याग–व्युत्सर्जन करना चाहिए। उसमें प्रथम चतुर्भगी की रचना करके दिखलाते हैं । यथा—मलमूत्रादि के परिष्टापन-व्युत्सर्जन की भूमि, जिसे स्थंडिल कहते हैं, ऐसी होनी चाहिए कि जिस समय कोई साधु उक्त मलादि पदार्थों को त्यागने के लिए गया हो, उस समय न तो कोई । गृहस्थादि आता हो और न कोई दूर खड़ा देखता हो, यह प्रथम भंग है। कोई आता तो नहीं परन्तु दूर खड़ा देखता है, यह दूसरा भंग है। आता तो है पर देखता नहीं, यह तीसरा भंग है । और आता भी है तथा देखता भी है, यह चौथा भंग है। इन चारों में उपादेय तो प्रथम भंग ही है । शेष तीन तो केवल दिखलाने के लिए वर्णन कर दिये गये हैं। इस सारे सन्दर्भ का सार इतना ही है कि इन घृणायुक्त पदार्थों को किसी निर्जन प्रदेश में ही विवेकपूर्वक व्युत्सर्जन करना चाहिए, जिससे कि त्यागे हुए ये पदार्थ किसी अन्य आत्मा को घृणा उत्पन्न करने वाले न हो जायँ । उक्त गाथा में आये हुए 'संलोक' शब्द में मत्वर्थीय 'अच्' प्रत्यय जानना चाहिए, जिसका अर्थ होता है देखने वाला ।
अब मल मूत्रादि के त्याग की भूमि के विषय में कहते हैंअणावायमसंलोए , परस्सणुवघाइए । समे अझुसिरे यावि, अचिरकालकयम्मि य ॥१७॥ अनापातेऽसंलोके , परस्यानुपघातके । समेऽशुषिरे चापि, अचिरकालकृते च ॥१७॥
पदार्थान्वयः-अणावायम्-अनापात असंलोए-असंलोक स्थान में परस्सपर जीवों के अणुवघाइए-अनुपघात में समे-समभूमि में या-अथवा अज्झसिरे-तृण