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________________ चतुर्विशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०८५ पदार्थान्वयः-उच्चार-पुरीष—मल पासवणं-मूत्र खेलं-मुख का मल सिंघाण-नासिका का मल जल्लियं-शरीर का मल आहार-आहार उवहिं-उपधि देहशरीर व-अथवा अन्न-अन्य पदार्थ वावि-भी तहाविहं-वैसा—फेंकने योग्य । मूलार्थ-मल-विष्ठा, मत्र, मुख का मल, नासिका का मल, शरीर का मल, आहार उपधि शरीर तथा और भी इसी प्रकार के फेंकने योग्य पदाथे, इन सब को विधि-यतना-से फेंके। ___टीका-इस गाथा में पाँचवीं उच्चारसमिति का वर्णन किया गया है । संयमशील साधु के लिए शास्त्र की यह आज्ञा है कि वह मल, मूत्र आदि त्याज्य पदार्थों का भी विधिपूर्वक व्युत्सर्जन करे अर्थात् देख-भालकर और फेंकने योग्य स्थान में उपयोगपूर्वक फेंके, जिससे किसी को घृणा भी उत्पन्न न हो तथा क्षुद्र जीव की विराधना आदि भी न हो । उच्चार नाम मल-विष्ठा का है। मूत्र प्रसिद्ध ही है । खेल नाम मुख से निकलने वाले मल का है । नासिका के मल को सिंघाण कहते हैं। शरीर में पसीमा आ जाने से जो मल उत्पन्न होता है, वह जल्लक कहलाता है। इसके अतिरिक्त अशनादि आहार और उपधि त्यागने योग्य जीर्ण वस्त्रादि तथा देहशरीर अर्थात् कोई साधु किसी निर्जन प्रदेश में वा अज्ञात प्रामादि स्थान में मृत्यु को प्राप्त हो गया हो । उसके शव को एवं अन्य गोमयादि पदार्थों को यदि व्युत्सर्जन करना हो तो संयमशील साधु विवेकपूर्वक व्युत्सर्जन करे। इस विषय का पूर्ण विवरण देखना हो तो 'निशीथसूत्र' में देखना । वहाँ पर व्युत्सर्जन के स्थानों का भी उल्लेख है । - अब परिष्टापन-व्युत्सर्जन—विधि के विषय में कहते हैंअणावायमसंलोए , अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए , आवाए चेव संलोए ॥१६॥ अनापातमसंलोकम् , अनापातं चैव भवति संलोकम् । आपातमसंलोकम् , आपातं चैव संलोकम् ॥१६॥ पदार्थान्वयः-अणावायम्-आगमन से रहित असंलोए-देखता भी नहीं अणावाए-आगमन से रहित च-पादपूर्ति में एव-अवधारणार्थक में संलोए-संलोकन
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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