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चतुर्विंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
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पत्रादि से अनाकीर्ण स्थान में य-और अचिरकालकयम्मि-अचिर काल के अचित्त हुए स्थान में अवि-प्राग्वत् । ___मूलार्थ-अनापात-जहाँ लोग न आते हों । असंलोक-लोग न देखते हों, पर जीवों का उपघात करने वाला न हो । सम अर्थात् विषम न हो और तृणादि से आच्छादित न हो तथा थोड़े काल का अचित्त हुआ हो, ऐसे स्थान में उच्चार आदि त्याज्य पदार्थों को व्युत्सर्जन करे, यह अग्रिम गाथा के साथ अन्वय करके अर्थ करना।
टीका-इस गाथा में मल मूत्रादि के त्याग की विधि में स्थानादि का निर्देश किया गया है । जहाँ पर मल मूत्रादि घृणास्पद वस्तुओं को गेरा जाय, वह स्थान किस प्रकार का होना चाहिए; इसी बात का प्रस्तुत गाथा में वर्णन है । जैसे कि—उस स्थान को स्वपक्ष और विपक्ष के गृहस्थ लोग न तो देखते हों और न वहाँ पर आते हों तथा उस स्थान पर जीवों का उपघात न हो अथवा वहाँ आत्मसंयम और प्रवचन का उपघात न होता हो । वह भूमि सम हो अर्थात् ऊँची नीची न हो, एवं तृणादि से आच्छादित-आकीर्ण और मध्य में पोली भी न हो। तथा अचिरकाल-थोड़े समय की अचित्त हुई हो। इस प्रकार मलादि पदार्थों के त्याग करने की भूमि में उक्त पाँच बातें होनी चाहिएँ । यथा-१ उसको कोई देखता नहीं, २ वहाँ पर आता न हो, ३ वह किसी की उपघातक न हो; सम हो, ४ तृण पत्रादि से आच्छन्न और मध्य में पोली न हो, और ५ थोड़े काल की अचित्त की गई हो। ऐसी भूमि वा स्थान में उक्त मलादि पदार्थों का विवेकपूर्वक त्याग करे। यह शास्त्रीय मर्यादा है, जिसका कि पालन करना साधु के लिए परम आवश्यक है अन्यथा संयम की विराधना और प्रवचन की अवहेलना संभव है, जो कि अनिष्टकारक है।
___ अब फिर स्थानसम्बन्धी विषय में ही कहते हैंविच्छिण्णे दूरमोगाढे, नासन्ने बिलवजिए। तसपाणबीयरहिए , उच्चाराईणि वोसिरे ॥१८॥