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उत्तराध्ययन सूत्रम्
[ चतुर्विंशाध्ययनम्
इन्द्रियार्थान् विवर्ज्य, स्वाध्यायं चैव पञ्चधा । तन्मूर्त्तिः (सन्) तत्पुरस्कारः, उपयुक्त ईयां रीयेत ॥८॥
पदार्थान्वयः —– इन्दियत्थे – इन्द्रियों के अर्थों को विवजित्ता - वर्ज कर चऔर सज्झायं - स्वाध्याय एव भी पञ्चहा - पाँच प्रकार की तम्मुत्ती - तन्मय होकर तप्पुरक्कारे - उसी को आगे कर उवउत्ते - उपयोगपूर्वक रियं - ईर्ष्या में रिगमन करे ।
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मूलार्थ — इन्द्रियों के विषयों और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग करके तन्मय होकर ईर्ष्या को सम्मुख रखता हुआ उपयोगपूर्वक गमन करें । टीका- - इस गाथा में उपयोगपूर्वक गमन करने के विषय में कुछ विशेष स्पष्टीकरण किया गया है । यथा— जब चलने का समय हो और चल पड़े तब शब्द, 'रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि जो इन्द्रियों के विषय हैं, उनको छोड़कर चले 'अर्थात् इन विषयों की ओर ध्यान न देवे। मार्ग में चलता हुआ— वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा और अनुप्रेक्षा- - इन पाँच प्रकार के स्वाध्याय का भी परित्याग कर देवे । किन्तु चलते समय तन्मूर्ति - तन्मय होकर — ईर्ष्या समिति रूप होकर और उसी को सम्मुख रखकर उपयोगपूर्वक मार्ग में चले । तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काया की चंचलता का परित्याग करके मार्ग में गमन करना चाहिए । उसमें भी उपयोग का भंग न होना चाहिए, अन्यथा किसी जीव के उपघात हो जाने की सम्भावना रहती है । यहाँ पर 'तन्मूर्ति और पुरस्कार' इन दोनों शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है— ' ततश्च तस्यामेवेर्यायां मूर्तिः– शरीरमर्थाद् व्याप्रियमाणा यस्यासौ तन्मूर्तिः, तथा तामेव पुरस्करोति तत्र वोपयुक्ततया प्राधान्येनाङ्गीकुरुत इति पुरस्कारः' ।
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इस प्रकार ईर्यासमिति का निरूपण करने के अनन्तर अब भाषासमिति के विषय में कहते हैं। यथा
कोहे माणे य माया, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विकहासु तहेव य ॥९॥