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चतुर्विशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
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इसी लिए प्रस्तुत गाथा में आये हुए-कित्तयओ-कीर्तयतः' का अर्थ करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं-'सम्यक् स्वरूपाभिधानद्वारेण संशब्दयतः शृणु-आकर्णय शिष्य' । अर्थात् हे शिष्य ! मेरे द्वारा किये गये यतना के सम्यग् निर्णय को तू श्रवण कर । . अब यतना के द्रव्यादि चारों भेदों के पृथक् २ स्वरूप का वर्णन करते हैं
दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रीइजा, उवउत्ते य भावओ ॥७॥ द्रव्यतश्चक्षुषा प्रेक्षेत, युगमात्रं च क्षेत्रतः। कालतो यावद्रीयेत, उपयुक्तश्च भावतः ॥७॥
‘पदार्थान्वयः-दव्वओ-द्रव्य से चक्खुसा-आँखों से पेहे-देखकर चले च-और खेत्तओ-क्षेत्र से जुगमित्तं-चार हाथ प्रमाण देखे कालओ-काल से जावजब तक रीइन्जा-चले, तब तक देखे य-और भावओ-भाव से उवउत्ते-उपयोगपूर्वक चले-गमन करे।
मूलार्थ-द्रव्य से-आँखों से देखकर चले । क्षेत्र से–चार हाथ प्रमाण देखे । काल से-जब तक चलता रहे । भाव से-उपयोगपूर्वक गमन करे।
टीका-इस गाथा में यतना के चारों भेदों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है। ऊपर बतलाया गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से यतना के चार भेद हैं । यथा-द्रव्ययतना, क्षेत्रयतना, कालयतना और भावयतना । इनमें जीव अजीव आदि द्रव्यों को नेत्रों से देखकर चलना द्रव्ययतना है । चार हाथ प्रमाण भूमि को आगे से देखकर चलना क्षेत्रयतना है। जब तक चले, तब तक देखे, यह कालयतना है। उपयोग से सावधानतापूर्वक गमन का नाम भावयतना है। इस प्रकार यतना के चार भेद हैं।
अब भावयतना के विषय में कुछ और विशेष कहते हैंइन्दियत्थे विवजित्ता, सज्झायं चेव पञ्चहा। तम्मुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्ते रियं रिए ॥८॥